बेशक इस सराहना से, जब-जब भी यह होती है हम भारतीयों का सीना 56 इंच का हो जाता है। हम अपने लोकतंत्र की और अपनी परिपक्वता पर अपनी ही पीठ ठोकने लगते हैं लेकिन यही सीना हर उस मौके पर 26 इंच का रह जाता है, अपना हाथ पीठ तक जाने की बजाय सिर पकड़ कर बैठ जाता है जब हमारी संसद या विधानसभाओं के सत्र चल रहे होते हैं।
संसद और विधानसभा ही नहीं नगर निकायों और ग्रामीण पंचायती राज संस्थाओं की बैठकों के दृश्य देखकर भी सिर शर्म से झुक जाता है। क्या होता है वहां? हंगामा, गाली-गलौच और मारपीट। अफसोस होता है ऎसे दृश्य देखकर। ऎसा तो गली-मोहल्लों की समितियों की बैठकों में भी नहीं होता।
संसद के चालू सत्र की ही बात करें तो क्या हुआ उसमें? हर दिन हंगामा और बैठक का अगले दिन के लिए स्थगन। क्या इसी के लिए देश के करोड़ों मतदाताओं ने इन सांसदों को चुना है? क्या इसीलिए सरकार-विपक्ष, प्रधानमंत्री, मंत्री और विपक्ष के नेताओं के भारी-भरकम खर्चे वाले पद बनाए गए हैं? अफसोस तब और बढ़ जाता है, जब हर बात और विष्ाय पर राजनीति होती है।
चाहे जीएसटी विधेयक की बात हो या भूमि अधिग्रहण विधेयक की। जीएसटी पर कानून बनाने की बात तो पन्द्रह साल से चल रही है। इस बीच भाजपा-कांग्रेस से लेकर फिर भाजपा की सरकार आ गई पर हुआ क्या? भाजपा का बिल कांग्रेस ने नहीं माना और कांग्रेस का बनाया बिल अब भाजपा नहीं मान रही।
आश्चर्य की बात है कि भाजपा आज जो बिल लाई है वह कांग्रेस का बनाया है। वह उसे ला रही है और कांग्रेस ही उसका विरोध कर रही है। क्या यही हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता है? क्या इसी पर गर्व करते हुए हमें हमारा सीना 56 इंच तक फुला लेना चाहिए? अभी भी समय है। हमारे राजनेता, राजनीतिक दलों और सरकारों को मिल-बैठकर अपनी इन कमियों पर विचार करना चाहिए।
राजनीति खूब करें लेकिन जनता के पैसे और जनता के हितों की कीमत पर नहीं। निर्वाचित सदन की बैठक हर हाल में चलनी चाहिए और जो उसमें बाधक बने उसकी सदस्यता ही रद्द हो जानी चाहिए। तभी देश और लोकतंत्र चलेगा और तभी हर देशवासी का सीना गर्व से फूलेगा।