– गोविन्द चतुर्वेदी पाकिस्तान की ‘शरीफ सरकार’ ने आखिर अपने देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक ‘डॉन’ के पत्रकार सिरिल अल्मीडा पर लगाई देश छोडऩे की पाबंदी हटा ली है। बधाई! लेकिन किसे? सिरिल अल्मीडा को, ‘डॉन’ अखबार को या फिर पाकिस्तान की जनता को। कायदे से ये तीनों ही बधाई के हकदार हैं। आखिर उन्होंने पाकिस्तान में प्रेस की आजादी की एक जंग जो जीत ली है। और वह जंग भी किसी लोकतांत्रिक सरकार से नहीं सेना से जीती है। उस सेना से जिसके लिए पाकिस्तान ही नहीं विश्व में माना जाता है कि, वहां की सरकार कोई हो, चलती सेना के ही रहमोकरम पर है।
सिरिल ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था जिसकी सजा के रूप में उस पर देश छोडऩे की पाबंदी लगाई जा सके। सरकार को बस उसकी खबर अच्छी नहीं लगी जिसमें नागरिक प्रशासन के इस आरोप का जिक्र था कि सेना आतंकवादियों को बचाती है और कि इस तरह पाकिस्तान दुनिया में अकेला पड़ रहा है। डॉन ने अपनी खबर को सही मानते हुए भी प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा भेजा गया खण्डन छाप दिया। तब भी सिरिल पर यह एक्शन हुआ तो विरोध स्वभाविक था। अगर यह पाबंदी जारी रहती और सिरिल पर कुछ और एक्शन होते, जैसी उसे आशंका थी तो बात बिगड़ती ही जाती।
सरकार ने जांच करा कर पाबंदी हटा ली। यह ठीक है पर उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि, अन्य रास्तों से उसे डराया-धमकाया नहीं जाए। सेना आखिर सेना है। उसकी नाराजगी आगे-पीछे सिरिल या डॉन के खिलाफ ऐसा कुछ नहीं कर बैठे जिससे पाकिस्तान पर एक और कलंक लगे तथा लोकतंत्र और मीडिया की आजादी प्रभावित हो। सिरिल और डॉन की जीत का संदेश अकेले पाकिस्तान और वहां की मीडिया के लिए ही नहीं है। इसका संदेश भारत सहित विश्व के मीडिया के लिए है जो जब तब अपनी सरकारों अथवा अन्य संगठनों की नाराजगी का शिकार हो अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है। इसका विश्व मीडिया के लिए एक ही संदेश है – अपना काम जिम्मेदारी से करो, तथ्यों के साथ करो और जरूरत पड़े तो समर्पण नहीं संघर्ष करो। जीत सत्य की होगी।
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