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जंगल से दूर होती जनता !

Published: May 02, 2016 11:11:00 pm

उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग अन्य राज्यों के जंगलों तक पहुंच रही है।
इस पर काबू पाने के प्रयास तो काफी किए जा रहे हैं पर फिलहाल अभी तक सफलता
नहीं मिली है

Opinion news

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चंडी प्रसाद भट्ट पर्यावरणविद्
उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग अन्य राज्यों के जंगलों तक पहुंच रही है। इस पर काबू पाने के प्रयास तो काफी किए जा रहे हैं पर फिलहाल अभी तक सफलता नहीं मिली है। छिटपुट आग तो हर साल लगती है और तीव्रता के लिहाज से देखें, हर चार-पांच साल में ऐसी भयंकर आग लगती ही रहती है। लेकिन, इस बार की आग समय से कुछ पहले लगी और इसकी व्यापकता भी काफी अधिक है।

होती है मानवीय असावधानी
जंगल में कैसे लगी आग, इसका पता लगना कठिन है क्योंकि जंगल में आग लगने के कई कारण हो सकते हैं। एक तो खेत में लगी मामूली आग, कई बार हवा से जंगल तक चली जाती है। कई बार शिकारी भी वन में आग लगा देते हैं। वनोपज की तस्करी की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। कई बार ऐसा भी होता है कि चलती बस से किसी यात्री ने जलती हुई तीली ही जंगल की ओर फेंक दी और इससे दहकी आग बेकाबू हो गई। कुल मिलाकर 99.99 फीसदी मानवीय असावधानी से ही आग लगती है। उत्तराखंड के मामले में भी मानवीय असावधानी ही आग कारण बनी होगी इस मामले में सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।

आपदा से बचाव के प्रयास
एक समय था जबकि तेज गर्मी में आग की आशंका के मद्देनजर वन अधिकारी पहले से योजनाएं तैयार कर लिया करते थे। ये योजनाएं नवंबर-दिसंबर में ही तैयार हो जाती थीं। वन अधिकारी ऐसे होते थे, उन्हें जंगल के अधिकतर वृक्षों की जानकारियां होती थीं।

वे वनों के आसपास के गांवों के लोगों और वन विभाग के कर्मचारियो के साथ योजनाएं तैयार करते थे और अप्रिय परिस्थिति से निपटने की योजना को अमल में लाते थे। लेकिन, अब आपदा प्रबंधन को लेकर ठोस योजनाएं तैयार नहीं की जातीं। केवल आग से ही नहीं बल्कि अतिवृष्टि से भी बचने की योजनाएं बनाई जाती थीं। महिलाएं अपने गांवों में दो-तीन घंटे अतिरिक्त काम करके पत्थर की दीवार बनाकर अतिवृष्टि से बचाव कर लिया करती थी। अब ग्रामीणों का जंगल से वैसा जुड़ाव नहीं रह गया है जैसा कि पहले हुआ करता था। लोगों को लगता है कि जंगल उनके नहीं सरकार के हैं और इसमें आग लगे या कुछ भी नुकसान हो, उससे निपटने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। वे आगे बढ़कर वन को बचाने के काम में सहायता के लिए नहीं आते।

आग लगने और फैलने के कारण
जंगलों में सबसे पहले जमीन पर गिरे पत्तों में आग लगती है। इस बार सर्दियों में बारिश नहीं होने से उत्तराखण्ड के जंगलों में जमीन में नमी नहीं बची थी। मार्च-्अप्रेल में तापमान अधिक होने से पत्ते अधिक गिरे।

चीड़ जैसे पेड़ों की प्रजातियां मध्य हिमालय में होती हैं। इन्हें निचले इलाकों में नहीं होना चाहिए क्योंकि हवा चलने के साथ ये तेजी से आग पकड़ते हैं। बड़ी संख्या में निचले इलाकों में इन्हें रोपित किया गया ।

पहली बार एमआई-17 हेलीकॉप्टर की सहायता से पानी का छिड़काव कर, आग बुझाने की कोशिश
एक बार में 3000 लीटर पानी वहन करने की क्षमता है इस हेलीकॉप्टर की

लोकसभा में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा
उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग की जानकारी मिलने के साथ ही जो भी त्वरित कार्रवाई हो सकती है, स्थानीय प्रशासन ने की है। केंद्रीय स्तर पर गृह मंत्रालय और वन पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जो भी त्वरित कार्रवाई हो सकती है, उसे हम लोगों ने किया है। इस समय स्थिति पूरी तरह काबू में हैं। इसके बारे में जानकारी प्राप्त होने के बाद यहां से तुरंत ही एनडीआरएफ की तीन टीम उत्तराखंड के लिए भेजी गई हैं। एयरफोर्स के तीन एमआई-17 हेलिकॉप्टरों द्वारा आग बुझाने का प्रयास किया जा रहा है।

कैसे थमे यह सिलसिला
आग पर काबू पाने के मामले में आपदा प्रबंधन के इंतजाम बेहतर तरीके से करने होंगे। सभी किस्म की आपदाओं के मामले में वन विभाग निकटवर्ती गांव के लोगों को जोड़ें। गांव के लोगों को जोडऩे का अर्थ केवल वन संरक्षण और उसके संवद्र्धन से ही नहीं है। इसके उपयोग से भी है। जब वन क्षेत्र के नजदीकी गांव के लोगों को लगता है कि वन हैं लेकिन उनके किसी काम के नहीं है। वनोपज का वे उचित मात्रा में इस्तेमाल नहीं कर सकते।

अन्य लोग वन विभाग से मिलकर वनोपज का न केवल उपयोग बल्कि आवश्यकता से अधिक दोहन करते हैं, उन पर किसी किस्म की रोक-टोक नहीं होती। ऐसे में वनों के नजदीकी गांवों में रहने वाले लोग वनों से दूर भागने लगते हैं। केवल जंगलों के संवर्धन और संरक्षण ही नहीं बल्कि उनके उपयोग में, ग्रामीणों की भागीदारी हो। खासतौर पर महिलाओं को इस मामले में जागरूक किया जाए तो वे वनों को बचाने के मामले में पारंपरिक रूप से आगे आएंगी। उनकी पारंपरित व्यवस्था को पुनर्जीवित करना बेहद जरूरी है। उनके जुडऩे से गांवों के परिवारों को जुड़ाव वनों से हो सकेगा। इसके अलावा वनों के फॉरेस्ट गार्ड जैसे निचले तबके कर्मचारियों को भी प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उन्हें समय-समय पर पदोन्नति मिले। उनकी संख्या में बढ़ोतरी करके, उनके वन क्षेत्र का दायरा कम किया जाए तो वे भी लोगों को जागरूक करने और आपदा से निपटने में कारगर साबित होंगे।

चूंकि पहाड़ी इलाके में अलग-अलग ऊंचाइयों पर आग लगी है इसीलिए इसे रोकने के लिए इस तक पहुंचना बहुत टेढ़ी खीर साबित होता है। इसके लिए पहली बार हेलीकॉप्टर की सहायता से पानी की बौछार फेंकर काबू करने की कोशिश की जा रही है। यह तरीका कामकाब हो भी जाएगा लेकिन भविष्य के लिए हमें निगरानी और सावधानी बरतने की आवश्यकता है। यह जागरूता के बिना नहीं हो सकता।

ग्रामीणों को जागरूक बनाएं
पी.सी. जोशी, सेनि. सीसीएफ, उत्तराखण्ड
जंगलों में आग गाहे-बगाहे लगती रहती है और इस पर समय रहते काबू भी पा लिया जाता है। लेकिन, उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग ने जिस तरह से विकराल रूप धारण किया है, वह चिंतनीय है। इसके लिए वनों के आसपास रहने वाले ग्रामीणों को जागरूक और सावधान करने की आवश्यकता है। आखिरकार, इस तरह की आग से न केवल उनका बल्कि देश की वनसंपदा का भारी नुकसान होता है।

आमतौर पर वनों के आसपास रहने वाले ग्रामीण जंगलों में आग लगाते हैं। इसका बहुत ही सरल सा कारण होता है, पालतू पशुओं के लिए हरे चारे की व्यवस्था करना। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, ग्रामीणों के पास उनके पालतू पशुओं के लिए हरा चारा समाप्त होने लगता है। वनों में गरमी में पेड़-पौधे और घास काफी कड़ी हो जाती है। पशुओं को उसे खाने में काफी परेशानी आती है। ऐसे में वन को आग लगा देने से कड़े हो चुके पेड़-पौधे और घास जल जाते हैं और उनके स्थान पर नई कोंपलें आने लगती हैं। पालतू जानवर इन हरी और नई कोंपलों को सरलता से खा लेते हैं। इसके लिए गांव के लोग वनों को जला देते हैं। हालांकि इस तरह की आग पर काबू पा लिया जाता है लेकिन परेशानी तब होती है जबकि हवा चलती और आग बेकाबू होकर फैलने लगती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है।

भविष्य में ऐसा न हो इसके लिए ग्रामीणों को जागरूक करने की जरूरत है। उन्हें सिखाना पड़ेगा कि सूखे की शुरुआत हो, इससे पहले ही हरे चारे की व्यवस्था कर लें। इसके अलावा असमय रहते वनों की साफ-सफाई भी करा ली जाए। आमतौर पर फरवरी-मार्च में जब पेड़ों की पत्तियां झडऩे लगती हैं तो उन्हें इकट्ठा करके, सीमित क्षेत्र में सावधानी पूर्वक जला दिया जाए। यदि यह कचरे समय से नहीं जलाया जाता है, तो भी तेज गर्मी और सूखे के सीजन में इनके आग पकडऩे की आशंका बढ़ जाती है।
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