सरकारों के भी बुरे हाल है। बस किसी तरह काम चलाना है। चेले चांटों को खुश रखना है। समर्थकों के काम कराने हैं
आदमी कौन-सा अच्छा होता है? जिसने घाट-घाट का पानी पी रखा हो। लेखक कौन श्रेष्ठ होता है? जो कई-कई विधाओं में माहिर हो। अधिकारी कौन-सा योग्य माना जाता है? जो कुर्सी-कुर्सी नौकरी कर चुका हो। और नेता कौन उत्तम कहलाता है? जो कई दलों की दल-दल में सन चुका हो। आज के युग में श्रेष्ठता या सफलता के पैमाने यही माने जाते हैं। पिछले दिनों एक मित्र की पुत्री के ब्याह में पुराने लेखक दिखलाई दे गए। उनकी बचकानी हरकतें देख हमें कवि जोशी की एक कविता याद हो आई- ये हैं साहित्य के औलिया/ बरसों तक बने रहे/ आधुनिकता और पाठक के बीच बिचौलिया/ यशस्वी कहाए/ घाट-घाट नहाए/ शिष्य और शिष्याएं पीछे-पीछे दौड़ती रही/ ले कंघा तेल और तौलिया।
कसम से जमाने की रंगत देख हमारे मन में कई बार आया कि गिरगिट बन कर दुनिया को कई रंग दिखलाएं। मंद-मंद मुस्काएं। जुगाड़ लगा कर किसी पुरस्कार चयन समिति में घुस जाएं ताकि अपनी भी पूछ हो। लेकिन हाय। सब कुछ जानते-समझते हुए भी कुछ आदतें अपना न सके और जमाने में अपने ‘रंग’ दिखला न सके। अफसरों की जमात पर नजर डालिए। वहां भी उन्हीं की पूछ है जो कुर्सी-कुर्सी घिस चुके हैं यानी जिनके पास कई विभागों का अनुभव है। अनुभव आदमी को महान् बनाता है। जगह-जगह रह कर वह तरह-तरह का ‘खान-पान’ सीख जाता है। जो अफसर खाता-पीता नहीं है वह ‘सुस्त’ कहलाता है। उसके काम तेज नहीं होते। उसकी लिखी ‘नोट शीट’ रफ्तार नहीं पकड़ती। क्योंकि उसमें ‘नियम-कायदे’होते हैं और हमारे नेताओं का सूत्र है- न कोई नियम-न कोई कायदा, जो चट से हमारी बात माने उसी से हमें फायदा।
अजी साहित्य और नौकरशाही को तो छोड़ो घर में भी बाप उसी बेटे को पसन्द करता है जो ‘चलता पुर्जा’ हो। ईमानदार और गंभीर बेटे से वह दूर ही रहता है। वह जानता है कि यह जो बोलेगा वह सोच-समझ कर बोलेगा। और आजकल मां-बाप भी कलयुगी हो चुके हैं। अब तो यह हाल है कि लोग भागे जा रहे हैं। बगैर सोचे-समझे। कइयों को तो यह भी पता नहीं कि उनकी मंजिल कौन सी है। चौराहे पर किधर जाना है। जिधर पांव पड़े उधर ही निकल लो।
इन्हीं के लिए कहा गया है- जहां-जहां पांव पड़े संतन के, वहां-वहां बंटाधार। सरकारों के भी बुरे हाल है। बस किसी तरह काम चलाना है। चेले चांटों को खुश रखना है। समर्थकों के काम कराने हैं। जिससे अगला चुनाव जीत सकें और नेता या नेत्री को बता सकें कि देखो हम कितने लोकप्रिय हैं। कुछ लेखकों को कुछ नहीं सूझ रहा तो ‘नींबू गुण विधान’ और ‘मध्यरात्रि प्रदीपिका’ लिख कर ही साहित्यिकों की टोली में घुस रहे हैं। इस समय झूठा खुश है और सच्चा रो रहा है। कबीर कह गए हैं- सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै।
राही