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कार्यशैली की छाप छोड़ी  है प्रणब दा ने

घर से करीब सात किलोमीटर दूर तक बचपन में स्कूल जाने के लिए जिसे  बीरभूम जिले के गांव मेराती तक

Jul 25, 2017 / 11:01 pm

मुकेश शर्मा

President Pranab Mukherjee

President Pranab Mukherjee

घर से करीब सात किलोमीटर दूर तक बचपन में स्कूल जाने के लिए जिसे बीरभूम जिले के गांव मेराती तक छोटी नदी पार कर जाना पड़ता था। ग्रामीण जीवन की ऐसी कठिनाइयों को पार करते हुए एक नन्हे बालक की रायसीना हिल तक पहुंचने की यात्रा अनुकरणीय है। जी हांं, देश के तेरहवें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कभी भी महत्वाकांक्षा नहीं रखी कि देश के प्रथम नागरिक बनकर सर्वोच्च पद संभालेंगे।

 हकीकत तो यह थी कि कांग्रेस पार्टी में, डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने से पहले उनके नाम पर विचार किया गया था। राजनीतिक गणित इस तरह बदला कि उन्हें राष्ट्रपति पद संभालना पड़ा। शायद इसके पीछे ऐसी अनकही कहानी है जिसे वे फुर्सत में अपनी उस गुप्त ‘लाल डायरीÓ में लिखेंगे, जिसमें हर रोज वे अपनी दिनचर्या समाप्त करने के बाद अनुभवों को लिखते हैं। इस डायरी में भारतीय राजनीति का वह इतिहास है जिसे शायद वे कभी प्रकाशित नहीं करना चाहेंगे। उन्होंने कहा भी है कि यह डायरी अंतिम यात्रा में उनके साथ ही जाएगी। संभवत: यही उनकी जबर्दस्त याददाश्त का राज भी है।

 जिस दिन वे राष्ट्रपति चुने गए, उन्हें बधाई देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 13, तालकटोरा स्थित उनके निवास पर पहुंचे। मुखर्जी की पौत्री लगभग उसी समय कूदती-फांदती उसी कक्ष में पहुंची जहां वे लोग बैठे हुए थे। वह भी अपने दादा को अपना बनाया हुआ चित्र देकर बधाई देना चाहती थी। इसमें उसने प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री के तौर पर चित्रित किया था। लेकिन, उन्होंने उस चित्र को मुस्कुराते हुए स्वीकार किया और कहा कि देश के प्रधानमंत्री तुम्हारे सामने बैठे हैं, मैं प्रधानमंत्री नहीं हूं। नन्हीं बच्ची भारी कदमों से कमरे से बाहर चली गई। लेकिन, मुखर्जी ने उस चित्र को लाल डायरी के उस दिन के पन्ने में अब भी लगा रखा है।

 वे कितने भी राजनीतिक या सरकारी काम में व्यस्त रहे हों लेकिन पिछले दिनों की यादों को वे हमेशा अपनी डायरी में लिखकर संजो लेते हैं। संविधान, राजनीति और इतिहास के लंबे अनुभव वाले मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने के बाद भी सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। एक बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार को डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने के लिए राज्यसभा में पेटेंट विधेयक पारित करवाना था। विरोध स्वरूप कांग्रेस इस विधेयक को पारित करवाने का श्रेय वाजपेयी सरकार को नहीं देना चाहती थी। लेकिन, प्रणब दा अड़ गए और उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति में जमकर बहस की कि इस विधेयक को पारित करवाने में संसद में सरकार की मदद करनी चाहिए।

 उस समय कई युवा नेताओं को लगा कि प्रणब भाजपा के नजदीक जा रहे हैं लेकिन उनका तर्क था कि कांग्रेस के कार्यकाल के दौरान ही डब्ल्यूटीओ से जुडऩे की प्रक्रिया शुरू की गई थी। ऐसे में केवल विपक्ष में होने के कारण इसका विरोध करना ठीक नहीं है। उनका नजरिया केवल यह था कि देश के लिए क्या ठीक है।

यह विधेयक आखिर संसद में कांग्रेस की मदद से पारित हुआ। उन्होंने संविधान और उसकी भावना का अक्षरश: पालन किया। उन्हें अपने कार्यकाल में दो विपरीत विचारधाराओं वाली सरकारों के साथ काम करना पड़ा लेकिन उन्होंने बेहद कुशलता के साथ मामलों को बिना किसी भेदभाव के निपटाया। वे गठबंधन सरकार के पक्ष में कभी नहीं रहे और शायद इसीलिए 2014 में उन्होंने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में देशवासियों से स्थायी और बहुमत वाली सरकार बनाने को मतदान का आग्रह किया। वर्ष 2004 में वे ऐसे इकलौते व्यक्ति थे जिन्होंने कांग्रेस पार्टी में भीतरी स्तर पर गठबंधन सरकार बनाने के मामले में सोनिया गांधी तक का विरोध किया था।

वर्ष 2014 के चुनावों के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनसे मुलाकात करने पहुंचे। उस वक्त राष्ट्रपति का अभिभाषण भाजपा की चुनावी घोषणाओं से ओत-प्रोत था। तब से मोदी व मुखर्जी में सौहार्दपूर्ण सम्बंध बने रहे। जब प्रधानमंत्री ने अपने शपथग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को बुलाना चाहा तो राष्ट्रपति ने उनका पूरा समर्थन किया था।

 क्योंकि उस समय अन्य देशों के राष्ट्र प्रमुखों को निमंत्रण देने के लिए भारत में पूर्णकालिक प्रधानमंत्री नहीं थे। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने एक बात सरकार से साफ कर दी थी कि वे ऑर्डिनेंस के रास्ते कानून बनाने में सरकार का साथ नहीं देंगे। जब भी सरकार कोई ऑर्डिनेंस राष्ट्रपति के पास भेजती थी तो राष्ट्रपति सम्बंधित मंत्री को तलब करते थे।

ऐसे अधिकतर मामलों में वित्तमंत्री अरुण जेटली वहां जाकर राष्ट्रपति को सहमत करने का प्रयास करते थे। कई राजनेता यह भी सवाल उठाते हैं कि उन्होंने कभी भी कोई भी ऑर्डिनेंस सरकार को वापस क्यों नहीं किया? इस पर उनका जवाब था कि वे एक दिन के लिए मीडिया की सुर्खियां नहीं बनना चाहते। चंूंकि सरकार के पास प्रचण्ड बहुमत है, ऐसे में संविधान के अनुसार जब मंत्रिमण्डल ने उसे पारित कर दिया है तो दूसरी बार उन्हें उस पर दस्तखत करने ही होंगे। इससे बेहतर है कि सरकार से सवाल-जवाब किए जाएं। उनका मानना था कि हम सहमत होने के लिए ही असहमत होते हैं।

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