व्यंग्य राही की कलम से काका रामभरोसे और प्रदेश के कर्णधार नेताजी में अद्भुत समानता है। ‘घर के पूत कुंआरे डोले और पड़ोसियों के फेरे’ यह मुहावरा दोनों पर सोलह आना सटीक बैठता है। काका रामभरोसे की औलादें घर बसाने को तरस रही हैं। छोरी वाले आते हैं पर बात किससे करें। कुंआरों का बाप तो आनगांव में जोड़ी मिलाता डोल रहा है।
यही हाल नेताजी का है। कुर्सी संभाले तीन बरस होने को आए। प्रदेश के साहित्यकार, सृजनकार, कलमकार, नृत्यकार, नाटककार बांट जोह रहे हैं कि अकादमियों के अध्यक्ष वे बने, सरस्वती सभा और कार्यकारिणी का निर्माण हो तो प्रदेश की सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों को विस्तार मिले। रुके हुए पुरस्कार मिले। नये लेखकों को मंच मिले। पर हाय। सृजनकार जाएं तेल लेने! कलमकार भाड़ झोंके। यहां तो नेताजी खुद साहित्य सरिता में डुबकी लगाने देश-विदेश घूम रहे हैं। अब कोई पूछे कि नेताजी क्या आपको लिटरेचर के ‘ल’ और थियेटर के ‘थ’ की भी समझ है। पर साहब।
बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। अगर नेताजी नाराज हो गए तो गए काम से। लुट गए बारह के भाव। तनिक भी चीं-चपर कर दी न जाने कौन करमजला दरबार में जा नमक मिर्च लगाकर ऊपर से नींबू निचोड़ आएगा। क्या पता माता सरस्वती नेताजी को सद्बुद्धि दे और बचे-खुचे काल में अकादमी अध्यक्ष बना कर मलाई नहीं तो खुरचन चाटने का ही मौका दे दे। कसम से हमें तो हैरत होती है कि जो ‘फेसबुक’ और ‘व्हाट्सएप’ पर साहित्य क्रांति का तबला बजाते रहते हैं, वे सार्वजनिक रूप से इन मुद्दों पर ऐसे चुप हैं जैसे बोलते ही भैंस पानी में उतर जाएगी।
वाह रे रणबांकुरों के देश के सृजनकारों। वाह रे क्रांतिचेताओं। सबके सामने अपने हक को मारा जा रहा है और सबके सब चुप हैं। समझदारों। कलम के प्यारों दुष्यन्त को ही याद करो- हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए…।
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