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जरूरी है आत्मनिर्भरता

Published: Sep 28, 2015 10:27:00 pm

किसी भी देश के लिए यह एक आदर्श स्थिति होती है
कि वह अधिकांश कमोडिटीज और दूसरी जरूरत की चीजों के लिए आयात पर निर्भर न हो।
विशेषकर खाद्यान्न उत्पादन में

Opinion news

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किसी भी देश के लिए यह एक आदर्श स्थिति होती है कि वह अधिकांश कमोडिटीज और दूसरी जरूरत की चीजों के लिए आयात पर निर्भर न हो। विशेषकर खाद्यान्न उत्पादन में। पर हकीकत में आत्मनिर्भरता का यह लक्ष्य हासिल करना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। बंपर पैदावार होने के बावजूद देश में खाद्यान्न भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं होने से एक ओर जहां अनाज सड़ता है वहीं आयात को मजबूर होना पड़ता है। भूमंडलीकरण का दबाव भी देशों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए अपनी सीमाएं खोलने के लिए बाध्य कर रहा है। ऎसे में कितना उचित और वांछनीय रह गया है आत्मनिर्भरता का लक्ष्य, इसी पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय…

आयात को रोकना और मुश्किल होगा
प्रो. अभिजीत सेन जेएनयू, दिल्ली
बेहतर नीति तो यही है कि कृषि क्षेत्र में आयात पर हमारी निर्भरता कम से कम हो। सरकारें लंबे समय से इस दिशा में प्रयास करती आ रही हैं। लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल से मुश्किल से होता जा रहा है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में जो बातचीत हो रही है, उसमें भारत के ऊपर के बहुत ज्यादा दबाव है कि भारत आयात के ऊपर टैरिफ और डयूटी हटाए तथा तमाम कमोडिटीज के लिए बाजार खोल दे। भारत को इस दबाव के सामने अपना बाजार एक सीमा तक तक खोलना ही पड़ेगा। जो बातचीत हो रही है उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं। इसलिए आगे आने वाले दिनों में संभावना तो यही है कि भारत का आयात कृषि क्षेत्र में और बढ़ेगा। अगर भारत को आयात पर अपनी निर्भरता कम करना है तो उसे कुछ निश्चित प्रयास करने होंगे। भारत लंबे समय से इस दिशा में प्रयास करते आ रहा है पर उसे अभी तक इस दिशा में सफलता नहीं मिली है।

कृषि उत्पादन बढ़ाना होगा
सबसे पहली बात यह है कि भारत को अपना कृषि उत्पादन बढ़ाना होगा। सरकारें आयात का सहारा तब लेती हैं जब किसी जिंस या अनाज के दाम कम आपूर्ति के कारण बढ़ते हैं। ऎसे में लोगों की अपेक्षा यह होती है कि उन्हें सस्ती चीज उपलब्ध कराई जाए। कैसे और कहां से, इससे लोगों को मतलब नहीं होता। ऎसे में सरकारें महंगाई पर काबू पाने के लिए संबंधित जिंस के आयात का मार्ग अपनाती हैं। हमारी कृषि में मानसून पर निर्भरता को देखते हुए किसी वर्ष कम उत्पादन की आशंका को देखते हुए आयात की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। जहां तक डब्ल्यूटीओ समझौते के कारण आयात बढ़ने की आशंका का सवाल है तो उसको दो तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। पहला तो हमें अपने कृषि उत्पादन की तकनीक सुधारना होगी। कृषि तकनीक को सुधारे बिना हम प्रतिस्पर्घी दाम पर अपना उत्पादन नहीं बढ़ा सकते और सस्ते आयात की समस्या से निपटना संभव नहीं होगा। दूसरा बाजार प्रणाली को चुस्त करना होगा। इसमें दो प्रमुख समस्याएं हैं – लॉजिस्टिक तथा मॉनोपाली।

डब्ल्यूटीओ में प्रयास जरूरी
पिछले दिनों हमने प्याज का आयात देखा। दाल भी एक अन्य जिंस है जिसका आयात बढ़ रहा है। इनका आयात और दाम बढ़ने के पीछे वजह है कम उत्पादन और बाजार प्रबंधन में खामियां। कई बार बाजार के माध्यम से दाम स्थिर करने के प्रयास में सफलता नहीं मिलती। प्याज के दाम बढ़ने के पीछे बड़ी वजह यही है। दालों के दाम भारत में इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि भारत में दालों का उत्पादन मांग के अनुसार नहीं बढ़ पा रहा है। ऎसे देश भी बहुत कम हैँ जहां से दालों का पर्याप्त आयात कर मांग की पूर्ति की जा सके। लेकिन इस बार माना जा रहा है कि दालों की फसल बेहतर हुई है। जमाखोरों से भी कुछ माल बाहर आएगा। इसलिए अक्टूबर-नवंबर तक दालों के दाम गिरना शुरू हो जाएंगे। पर भारत को डब्ल्यूटीओ में पूरी कोशिश करनी होगी कि अधिक जिंसों के लिए भारत का बाजार न खोलना पड़े।

नीतियों में प्राथमिकता नदारद, फोकस नहीं
राजेश रपरिया वरिष्ठ पत्रकार
लगभग ढाई दशक पूर्व हमने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाया था। लक्ष्य था कि आर्थिक विकास के पायदानों पर देश आगे बढ़े। आयात-निर्यात का पैमाना यानी व्यापार संतुलन को काबू में लाया जा सके। विचार अच्छा था, लेकिन इसका सही ढंग से क्रियान्यवन ही नहीं हो पाया है। नतीजा ये रहा है कि हमारे आयात अब भी निर्यात से ज्यादा ही हैं। व्यापार संतुलन नकारात्मक है। इसका कारण है कि पिछले ढाई दशकों के दौरान आयात-निर्यात से जुड़े क्षेत्रों के लिए हमारी नीतियों में दूरदर्शिता का अभाव रहा है।

कृषि में अल्पकालिक समाधान
प्राथमिकताएं और फोकस ही गलत रहा है। ऎसे में हम सकारात्मक नतीजों की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। कृषि क्षेत्र को ही देखें तो आज भी हमें खाद्य तेलों और दालों का आयात करना पड़ता है। हर साल दालों के दाम बढ़ जाते हैं। इसका सीधा असर मध्यम और निम्न वर्ग पर पड़ता है। हाहाकर मचता है तो फिर आयात के जरिए ही अल्पकालिक समाधान खोजे जाते हैं। कृषि क्षेत्र में दालों का उत्पादन किसान से लिए इतना फायदेमंद नहीं होता है। लगात के अनुपात में दालों का समर्थन मूल्य ही तार्किक नहीं है। दालों की पैदावार लागत भी अधिक है। इस सब के बावजूद सरकार की नीतियो पर नजर डालें तो ये कागजी ज्यादा हैं। इनका जमीनी हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है।

सरकारी नारा है “पर ड्रॉप मोर क्रॉप”। जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है। जबकि यदि हम ड्रिप इरीगेशन के खर्च पर नजर डालें तो ये खासा महंगा पड़ता है। प्रति एकड़ के खेत में ड्रिप सिंचाई की लागत 50 से 1.50 लाख रूपए बैठती है। जबकि भारत में 70 फीसदी छोटे अथवा सीमांत किसान हैं। ऎसे में ड्रिप सिंचाई की पद्धति कैसे सफल हो सकती है। हालात तो यहां तक खराब हैं कि फसली पैदावार के भंडारण की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। हर साल लाखों टन अनाज खराब हो जाता है। फल-सब्जी का भंडारण तो और भी कठिन है। स्थिति ये है कि पिछले आठ-दस साल से ग्रामीण आधारभूत ढांचे को निवेश के लिए खोला हुआ है। लेकिन निवेशकों का अब भी इंतजार ही है।

रियायतों के भरोसे नतीजे नहीं
आयात-निर्यात नीति तो हमारे लिए किसी पहेली के समान हो गई है। नीति निर्घारक ये मानें बैठे हैं कि केवल करों में रियायत और ब्याज में माफी से ही देश के निर्यात में तेजी आ जाएगी। निर्यात प्रोत्साहन और संवर्द्धन के अन्य तरीकों के प्रति सरकारें आंखें मूंदे ही रही हैं। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने 10-15 कंपनियों के 10 हजार करोड़ के कर माफ किए। इसके अनुपात में निर्यात का ग्राफ तो अब भी नीचे ही रहा है। बेशक वर्तमान में वैश्विक मंदी का असर है। लेकिन हम अपने निर्यात पर नजर डालें तो इसके गिरने के पीछे अन्य कई कारण हैं।

हमारे उत्पादों की गुणवत्ता अन्य देशों के मुकाबले कम है। उत्पादन लागत अधिक होने के कारण हमारे उत्पाद महंगे भी होते हैं। इसके दूसरे पक्ष को भी हम देखें तो पाएंगे कि निर्यात बढ़ाने के लिए सरकारी प्रयास नाकाफी हैं। उद्यमियों के लिए आधारभूत ढांचे का अभाव है। आयात पर नजर डालें तो हम हर साल 80 बिलियन डॉलर के सोने का आयात कर रहे हैं। इस प्रकार एक लाख करोड़ डॉलर के मोबाइल और कंप्यूटरों का भी आयात होता है। देश में बिकने वाले मोबाइल हैंडसैट में 95 फीसदी पुर्जे आयातित होते हैं। “लक्जरी इंपोर्ट” को नियंत्रित रखने की कोई नीति नहीं है।

जबकि इसके लिए डॉलर खर्च करने पड़ते हैं। खर्चीले आयात से विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ने वाले बोझ को अंतत: देश की 70 फीसदी आम जनता को ही वहन करना पड़ता है। अब सरकार “मेक इन इंडिया” का लक्ष्य निर्घारित कर रही है। कहा जा रहा है कि इससे हालात बदलेंगे। लेकिन आधारभूत ढांचे का विकास कैसे कर होगा। अमरीका, चीन व जापान में सरकारों ने पहले आधारभूत ढांचे का विकास किया फिर निवेश को आमंत्रित किया। निवेशक आधारभूत ढांचे में कतई निवेश नहीं करना चाहेगा।

खाद्यान्न आयात बढ़ा
पिछले पचास सालों में वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न का आयात पांच गुना से भी ज्यादा बढ़ा है। 1961 मे लगभग 50 मिलियन टन खाद्यान्न का आयात वैश्विक स्तर पर हुआ करता था, जबकि 2013 में यह आयात 300 मिलियन टन हो चुका था। दुनिया भर के देश अपनी जरूरतों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार पर अत्यधिक निर्भर होते जा रहे हैं। लेकिन इसका दुष्परिणाम यह होता है कि अगर किसी कमोडिटी के दाम अचानक से बढ़ते हैं तो फिर आयात पर निर्भर देश के लिए बढ़ा संकट खड़ा हो जाता है।

खाद्यान्न सुरक्षा
विश्व व्यापार संगठन में जो सौदेबाजी चल रही है उसके अनुसार इंडिया और भारत के नेतृत्व में जी-33 देशों का समूह अपनी खाद्य सुरक्षा जरूरतों के लिए खाद्यान्न के भंडारण और उसके लिए उचित सब्सिडी चाहते हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि इस सब्सिडी को “ग्रीन बॉक्स” श्रेेणी में रखा जाए। अमरीका जैसे देशों को इस पर आपत्ति है कि भारत का कृषि क्षेत्र कई विदेशी उत्पादों के लिए बंद है। उसके अनुसार भारत जैसे देश एक मनमानी टैरिफ नीति पर चल रहे हैं।
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