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आरक्षण की आंच

नौकरियों में आरक्षण पर किसी को विरोध
नहीं लेकिन इसका आधार जातिगत न हो। आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण मिले चाहे
वह किसी भी जाति के क्यों ना हों

May 29, 2015 / 11:30 pm

शंकर शर्मा

Reservations

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आजादी के 68 साल बाद भी देश में 19 करोड़ से अधिक लोग भुखमरी के शिकार हों तो सरकारों के विकास के दावों की पोल अपने आप खुल जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी के मामले में भारत दुनिया में शीर्ष पर है।

एक तरफ हम नौकरियों में दस साल के लिए लागू किए गए आरक्षण को हर दशक बाद बढ़ाते जा रहे हैं ताकि पिछड़ी जातियों के लोग विकास की मुख्यधारा में शामिल हो सकें। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े देश के विकास की असली कहनी बयां करते नजर आ रहे हैं। आरक्षण के औचित्य पर चल रही बहस के बीच राजस्थान में गुर्जरों को विशेष पिछड़ा वर्ग के तहत पांच फीसदी आरक्षण की घोषणा कर डाली।

इसे सालों से चली आ रही वोट बैंक की राजनीति के विस्तार के रूप में ही देखा जाना चाहिए। आरक्षण हमेशा गरीबों के उत्थान के नाम पर दिया जाता है लेकिन उसका लाभ उठाते हैं सम्पन्न। राजस्थान में गुर्जरों को 49 फीसदी की आरक्षण सीमा से अलग जाकर 5 फीसदी आरक्षण देने का औचित्य आम आदमी की समझ से तो बाहर है।

राजनेताओं के लिए वोट बैंक की राजनीति ही यदि सर्वोपरि है तो क्यों ना हर जाति को संख्या के हिसाब से आरक्षण दे दिया जाए। लेकिन ऎसा करने से क्या हर जाति का विकास हो जाएगा? हर जाति के उन लोगों को इसका लाभ मिल पाएगा जिन्हें वाकई इसकी सबसे अधिक जरूरत है। जब पुरूषार्थी समाज के लोग भारत आए तब उनके पास क्या था? उन्हें तो किसी सरकार ने आरक्षण नहीं दिया? उनकी तरक्की आज सबके सामने है। उधर राजनेताओं ने नौकरियों में तो आरक्षण दिया ही, संसद और विधानसभाओं में भी आरक्षण दे डाला।

महिला आरक्षण की बात भी लम्बे समय से जोर-शोर से उठ रही है। ये सब वोटों की राजनीति के खेल से इतर कुछ नहीं जान पड़ता। ये सब देखकर देश की जनता भले शर्मसार होती रहती है लेकिन राजनेता हैं कि उन्हें हर हाल में सत्ता सुख चाहिए। आरक्षण के सवाल पर किसी को विरोध नहीं लेकिन यह तो तय होना ही चाहिए कि वह किसे मिले और कब तक मिले? फिर सवाल उठता है, उसके आधार का। आरक्षण जातिगत न होकर आर्थिक हो।

आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण मिले चाहे वह किसी भी जाति के क्यों ना हों। वोटों की राजनीति को साधने का यह खेल यूं ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देश में दो वर्ग आमने-सामने होंगे और वो भी खुलकर। मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ 1990 के आरक्षण विरोधी उग्र आंदोलन को लोग अब तक भूले नहीं हैं।

इसलिए बेहतर होगा कि वोटों की फसल पकाने के लोभ से बचकर चला जाए और जातिगत आरक्षण की बजाए आर्थिक आरक्षण लागू किया जाए। देश के लिए यही अच्छा कदम होगा। इसमें कमजोर को ताकत मिलेगी, योग्यता का सम्मान होगा और आपसी भाईचारा बढ़ेगा,जिसकी आज सबसे बड़ी जरूरत है।


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