scriptप्रयास सही, नतीजे नहीं | Right effort, not results | Patrika News

प्रयास सही, नतीजे नहीं

Published: May 02, 2016 06:00:00 am

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अप्रेल के प्रारंभ में विश्वविद्यालयों व
कॉलेजों पर अखिल भारतीय रैंकिंग 2016 जारी की है। सरकार की ओर से  रैंकिंग
जारी करने का यह पहला प्रयास है

Opinion news

Opinion news


पी. पुष्कर सहा. प्रोफेसर, मानविकी एवं समाज शास्त्र विभाग बिट्स पिलानी, गोवा
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अप्रेल के प्रारंभ में विश्वविद्यालयों व कॉलेजों पर अखिल भारतीय रैंकिंग 2016 जारी की है। सरकार की ओर से रैंकिंग जारी करने का यह पहला प्रयास है। इस पहल के साथ ही सरकार द्वारा अब प्रतिवर्ष जारी किए जाने वाले इस दस्तावेज की तुलना स्वत: ही कॉलेजों में दाखिले के लिए सत्र की शुरुआत से पहले समाचार पत्रिकाओं में जारी रैंकिंग से की जा सकेगी। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या छात्रों और अभिभावकों को पढ़ाई के लिए विषय या संस्थान चुनने जैसा अहम निर्णय लेते वक्त ऐसी रैंकिंग पर विचार करना चाहिए।

इसका छोटा सा जवाब है, उन्हें पूरी तरह से इन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मोटे तौर पर कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनका ध्यान भी दाखिले के लिए संस्थान का चयन करते समय रखा जाना चाहिए। महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की उपयोगिता के आकलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक मापदंड उनकी विश्वसनीयता है। सवाल यह भी उठता है कि रैंकिंग करती आई विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अब सरकार ने रैंकिंग के लिए इस विश्वसनीयता परीक्षण किया है। किसी भी रैंकिंग प्रणाली के संस्थानों के पास उपलब्ध आंकड़े और उन आंकड़ों की व्याख्या करने के लिए अपनाया गया तरीका ही अहम घटक होते हैं। इन दोनों की अपनी सीमाएं हैं और कोई भी रैंकिंग प्रणाली इन दोनों की कसौटी पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती, भले ही वे क्वाक्वैरली सिमंड्स (क्यूएस) तथा टाइम्स हायर एजुकेशन (टीएचई) जैसी अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग संस्थाएं ही क्यों न हों। इसलिए इनकी सार्थकता पर सवाल उठना लाजिमी है।

आंकड़ों की बाध्यता
भारतीय रैंकिंग की भूमिका में भविष्य में ‘ईमानदार’ और ‘विश्वसनीय’ आंकड़ों की ओर अधिक गहराई से ध्यान देने और रैंकिंग तंत्र में मौजूदा खामियों को स्वीकार करने की जरूरत है। जानकारी में सामने आया है कि आंकड़ों की उपलब्धता के आधार पर रैंकिंग की विश्वसनीयता के साथ समझौता किया जाता है। इस प्रकार, रैंकिंग के संदर्भ में सरकार और अन्य संगठनों को आंकड़ों की तीन प्रकार की बाध्यताओं का सामना करना पड़ता है।

पहला, भारतीय संस्थान रैंकिंग संगठनों को आंकड़े उपलब्ध कराने के प्रति उदासीन रवैया रखते हैं इसलिए ये आंकड़े हासिल करना कोई आसान काम नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि भारतीय संस्थानों संबंधी ऑनलाइन जानकारी पूर्णत: उपलब्ध नहीं है। ये समय-समय पर अपडेट भी नहीं की जाती इसलिए इनमें प्रासंगिक जानकारियों का अभाव रहता है। यही वजह है कि रैंकिंग संस्थानों के लिए संस्थानों के आंकड़े जुटाना निहायत ही मुश्किल काम है। भारतीय रैंकिंग के संदर्भ में बात की जाए तो सरकार का इरादा छह प्रकार के शैक्षिक संस्थानों की रैंकिंग करने का है, ये हैं- विश्वविद्याालय, कॉलेज, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, आर्किटेक्चर और फार्मेसी संस्थान।

अंत में तय किया गया कि कॉलेज और आर्किटेक्चर संस्थानों की रैंकिंग न की जाए क्योंकि इनमें से केवल कुछ ने ही आवश्यक आंकड़े उपलब्ध करवाए। इस तरह कम से कम उन 40 प्रतिशत छात्रों के लिए भारतीय रैंकिंग-2016 बेमानी हो जाती है जो कला, मानविकी या सामाजिक विज्ञान की डिग्री के लिए कॉलेज जाते हैं। दूसरी श्रेणियों में भी अपेक्षाकृत बहुत कम संस्थानों द्वारा उपलब्ध आंकड़ों से ही यह रैंकिंग तैयार की गई है। उदाहरण के लिए, विश्वविद्यालयों की रैंकिंग केवल 233 संस्थानों के आंकड़ों के आधार पर की गई है, जो कुल विश्वविद्यालयों की संख्या का मात्र 33 प्रतिशत है। इन संख्याओं और इस आधार पर कि केवल कुछ ही संस्थानों ने आंकड़े उपलब्ध नहीं करवाए, तो भी यह रैंकिंग प्रावधायी ही मानी जाएगी।

गुणवत्ता पर भी संशय
दूसरी महत्वपूर्ण बात, उपलब्ध आंकड़ों की गुणवत्ता की भी समस्या है। जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनकी गुणवत्ता पर संशय है। कुछ निष्पक्ष स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर भरोसा किया जा सकता है। जैसे, रैंकिंग संस्थाओं को आंकड़ों के लिए विश्वविद्यालयों या शोध पर निर्भर नहीं रहना पड़ता क्योंकि वे वेबसाइट और अन्य स्रोतों से यह जानकारी हासिल कर सकते हैं। हालांकि अन्य प्रकार के विश्वसनीय संस्थान-संकाय शिक्षकों की संख्या या संकायवार छात्रों की संख्या, लिंगानुपात तथा अन्य मापदंंड की जानकारी स्वयं उपलब्ध करवा सकते हैं।

सरकार की स्थिति बेहतर
तीसरी बात यह है कि आंकड़ों की संख्या और गुणवत्ता की सीमाओं के बावजूद इनकी सत्यता को प्रमाणित करना सामान्य परिस्थितियों में अधिक महत्वपूर्ण है। उपलब्ध जानकारियों की वैधता प्रमाणित करने के संदर्भ में सरकार पत्र-पत्रिकाओं से बेहतर स्थिति में है क्योंकि इसके पास ज्यादा संसाधन हैं और ऐसा करने का अधिकार भी। दूसरी ओर पत्र-पत्रिकाओं के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही इन पर जोर देने का अधिकार। साथ ही उनका मुनाफा भी इससे जुड़ा है और वे इन ‘गैर लाभकारी’ विभिन्न प्रकार की निजी संस्थाओं के विज्ञापन भी बड़ी उदारता से छापते हैं, जाहिर है इनके हित आपस में जुड़े हैं इसलिए इनकी रैंकिंग पर विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है।

साख व शोध का पैमाना
अलग-अलग संस्थाएं शैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग तय करने के लिए लगभग समान मैट्रिक्स लेकिन अलग-अलग तरीके अपनाती हैं जैसे कुछ शोध को काफ ी महत्व देती हैं तो कुछ साख को। वे अपने रैंकिंग को मिली समीक्षा के आधार पर उसे सुधारने के लिए लगभग हर साल रैंकिंग निर्धारण का अपना तरीका बदलते हैं। भारतीय रैंकिंग की एक समस्या विभिन्न प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों के वर्गीकरण का तरीक ा है।

इसके अनुसार एक शैक्षणिक संस्थान को एक ही श्रेणी में जगह दी जाएगी जबकि कई संस्थान एक से अधिक श्रेणी में फिट बैठते हैं इसलिए ‘एक संस्थान, एक श्रेणी’ का फार्मूला रैंकिंग पर सवालिया निशान है। उदाहरण के लिए हमारे आईआईटी संस्थान विश्व रैंकिंग में विश्वविद्याालयों की श्रेणी में रखे जाते हैं लेकिन भारत में इन्हें इंजीनियरिंग संस्थानों की गिनती में ही रखा जाता है, इससे विश्वविद्यालय रैंकिंग में वे संस्थान आगे आ जाते हैं, जो वास्तव में निचली पायदान पर होने चाहिए थे। ‘एक संस्थान, एक श्रेणी’ नियम का एक नुकसान यह भी है कि कुछ संस्थानों को अपेक्षाकृत निचली श्रेणी में जगह मिलती है।

उदाहरण के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड (आईआईएफटी) को जबर्दस्ती विश्वविद्याालय, श्रेणी में स्थान दिया गया जबकि व्यावहारिक रूप से यह उस श्रेणी में नहीं है। विभिन्न संस्थानों के लिए विभिन्न रैंकिंग पैमाने भी समुचित नहीं है। जैसे उन विश्वविद्याालयों को शोध नतीजों और प्रभाव का पैमाना 40 प्रतिशत रखा गया है जो कि शिक्षण व शोध संस्थान माने जाते हैं लेकिन समान इंजीनियरिंग संस्थानों को मात्र 30 प्रतिशत ही दिया गया है जैसे कि आईआईटी संस्थान।

बरतनी होगी सावधानी
रैंकिंग भले सरकारी हो या समाचार पत्र-पत्रिकाओं की, आंकड़ों और प्रक्रिया के आधार पर इनमें कहीं न कहीं समझौता किया लगता है। बेहतर यही होगा कि छात्रों और अभिभावकों को इन रैंकिंग के आधार पर फैसला लेने में सावधानी बरतनी चाहिए।

संस्थानों का उदासीन रवैया
भारतीय संस्थान रैंकिंग संगठनों को आंकड़े उपलब्ध कराने के प्रति उदासीन रवैया रखते हैं इसलिए ये आंकड़े हासिल करना कोई आसान काम नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि भारतीय संस्थानों संबंधी ऑनलाइन जानकारी पूर्णत: उपलब्ध नहीं है। ये समय-समय पर अपडेट भी नहीं की जाती ।

अलग-अलग हैं तरीके
अलग-अलग संस्थाएं शैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग तय करने के लिए लगभग समान मैट्रिक्स लेकिन अलग-अलग तरीके अपनाती हैं जैसे कुछ शोध को काफ ी महत्व देती हैं तो कुछ साख को। वे रैंकिंग सुधारने के लिए लगभग हर साल रैंकिंग निर्धारण का अपना तरीका बदलते हैं।
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो