जैसे भारतीय जनता के लिए दलबदल अब कोई नई बात नहीं है, वैसे ही रीता और विजय बहुगुणा के लिए भी यह नया नहीं है।
गोविन्द चतुर्वेदी
तो रीता बहुगुणा जोशी ने भी दलबदल के भारतीय राजनीतिक रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करवा लिया। आजाद भारत के इतिहास में राजनेताओं की छोटी-मोटी नहीं, बहुत लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने अपने राजनीतिक कॅरियर में, एक नहीं कई-कई दल बदले। रीता और उनके भाई विजय बहुगुणा जैसे नाम ज्यादा चर्चा में इसलिए आते हैं कि उन्होंने ऊंचे-ऊंचे पदों पर रहकर पार्टी छोड़ी, नहीं तो कार्यकर्ताओं का तो ऐसा दलबदल इन दिनों आम बात है।
रीता उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पांच साल अध्यक्ष रही हैं तो उनके भाई विजय बहुगुणा करीब दो साल उत्तराखण्ड़ के मुख्यमंत्री रहे। जैसे भारतीय जनता के लिए दलबदल अब कोई नई बात नहीं है, वैसे ही रीता और विजय बहुगुणा के लिए भी यह नया नहीं है। उनके पिता हेमवती नंदन बहुगुणा अपने समय के उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के राजनीतिक दिग्गज थे। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ही नहीं रहे, केन्द्र में भी कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। इससे भी बड़ी बात वे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की ‘किचिन केबिनेट’ के सदस्य थे। उस किचिन केबिनेट के जिसकी सदस्यता कोई भी दिग्गज राजनेता, अपने किसी भी सहयोगी को बहुत सोच विचार कर देता है।
लेकिन बाद में वक्त ऐसा बदला कि, इमर्जेंसी हटते ही उन्होंने तब के एक और पार्टी दिग्गज और इंदिरा गांधी के बाएं हाथ बाबू जगजीवन राम के साथ कांग्रेस छोड़ ‘कांग्रेस फोर डेमोके्रसी’ बना ली। फिर जनता पार्टी में जा मिले। बाबू जगजीवन राम जो तब देश में दलितों के एकमात्र बड़े नेता थे, जनता सरकार के दो में से एक उप प्रधानमंत्री बन गए। दूसरे उप प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह थे जो बाद में छह माह के लिए प्रधानमंत्री भी बने। बहुगुणा जनता सरकार में पैट्रोलियम मंत्री रहे। जब वे इंदिरा गांधी के करीबी थे तब अपने वामपंथी रुझान के कारण वे तत्कालीन सोवियत संघ के भी करीब रहे। इतने करीब कि, सोवियत नेता उनमें इंदिरा गांधी का विकल्प देखने लगे।
खैर बात दलबदल आधारित भारतीय राजनीति की चल रही थी। नेता ही नहीं यहां तो पूरी की पूरी सरकारें दल बदलती रही हैं। अरुणाचल का उदाहरण तो ताजा है ही। सालों पहले हरियाणा में ऐसा ही करिश्मा करके भजनलाल ने देश में आयाराम-गयाराम की राजनीति को नई ऊंचाईयां दी थीं। अकेले या अपने कुछ समर्थकों के साथ दल बदलने वालों की लम्बी सूची में ज्यादातर नाम उगते सूरज को सलाम करने वाले हैं। यानी जीतने वाली पार्टी को छोड़ हारने वाली पार्टी का दामन थामने वाले ‘सिद्धान्तवादी’ भारत में कम ही हुए हैं। वर्ना ज्यादातर राजनेता ‘सैद्धांतिक मतभेदों’ के बावजूद तब तक उस दल में बने रहते हैं, जब तक वो सत्ता में होता है अथवा उनकी ‘कोहनी पर गुड़’ चिपकाए रखता है।
राजनेताओं की तरह राजनीतिक दल भी आने-जाने वालों की असलियत और उनका दम जानते हैं। रीता बहुगुणा में उतना ही करिश्मा होता तो कांग्रेस कभी की यूपी की सत्ता पर काबिज हो चुकी होती। खुद रीता भी अपना राजनीतिक वजन जानती हैं। भाजपा भी जानती है कि, जो कांग्रेस की नहीं हुई वो भाजपा की क्या होगी लेकिन आज उसे अपने पलड़े में भारी नाम चाहिए। और देखें तो क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को। उन्होंने भाजपा तब छोड़ी जब यह साफ हो गया कि, पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट नहीं करने वाली। पति के पार्टी से तमाम मतभेदों और पार्टी छोडऩे के बाद श्रीमती नवजोत ने भी भाजपा तब छोड़ी जब उन्हें लग गया कि, वहां अब उनके लिए भी कोई स्कोप नहीं है।
स्वामी प्रसाद मौर्य और आर के सिंह के भी यूपी में बसपा छोडऩे का कोई सैद्धांतिक कारण नहीं था। व्यक्ति पूजक राजनीति तो बसपा में कांशीराम के समय भी थी और मायावती के समय भी। जब जो पार्टी छोड़ता है, जामा सैद्धांतिक मतभेदों का ही पहनाता है पर ज्यादातर आकर्षण कुर्सी बने रहने का रहता है। हरियाणा में चौधरी वीरेन्द्र सिंह हों या राव इन्द्रजीतसिंह दिल्ली में कृष्णा तीरथ हों अथवा फिर यूपी में एक दिन के मुख्यमंत्री जगदम्बिका पाल सबने ऐसे ही हालात में अपनी पार्टियां बदलीं।
शरद पवार भी ऐसे ही राजनीति के क्लासिक उदाहरण हैं। कभी कांग्रेसी रहे तो कभी जनता पार्टी में चले गए। राजीव गांधी के साथ आए तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए। फिर श्रीमती सोनिया गांधी की विदेशी नागरिकता के सवाल और उनके प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने की आशंका में अपना चांस जाने के डर में ही उन्होंने 1999 में एनसीपी बना ली। फिर उन्हीं सोनिया गांधी की सदारत वाले यूपीए की केन्द्र सरकार में स्वयं दस साल केन्द्रीय मंत्री भी रहे। अब उनका सॉफ्ट कार्नर एनडीए के साथ दिख रहा है।
आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इमेज कभी ‘फायर ब्राण्ड लीडर’ की थी। पश्चिम बंगाल माकपा के दिग्गज सोमनाथ चटर्जी तक को उन्होंने चुनावी हार का स्वाद चखाया। जब कांग्रेस ने वामपंथियों के साथ नरमी का रुख दिखाया तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ी। बाद में बाजपेयी सरकार और यूपीए सरकार दोनों में मंत्री रही। दलबदल का इतिहास पुराना और लिस्ट लम्बी है लेकिन उसमें सुभाष चन्द्र बोस जैसे नाम बहुत कम हैं जिन्होंने अपने सिद्धान्त के लिए कांग्रेस छोड़ी। वो कांग्रेस जिसके वे दो बार राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे लेकिन जब महात्मा गांधी को अंग्रेजों से आजादी का उनका सशस्त्र संघर्ष पसंद नहीं आया तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। फिर उसमें कभी नहीं लौटे। अब अपने नीति, सिद्धान्त और कार्यक्रमों पर चलने वाले न वैसे राजनेता रहे न राजनीतिक दल।