व्यंग्य राही की कलम से
मिट्टी से सबसे ज्यादा प्रेम बच्चे करते हैं और नफरत बड़े। छोटे बच्चे को मिट्टी में छोड़ दें। कभी मिट्टी के घर बनाएगा, कभी सिर पर डाल लेगा। कभी मिट्टी में लोटपोट हो जाएगा। ऐसे नैसर्गिक खेल को देख उसके मम्मी-पापा चिल्लाएंगे और बच्चे को मिट्टी में खेलता किसी ने देख लिया तो शर्मिन्दा होंगे।
दरअसल मिट्टी में खेलना बच्चे का प्राकृतिक गुण है। अब तो मिट्टी और बच्चों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक भी कहते हैं कि जो बच्चे मिट्टी में खेलते हैं उनमें रोगों से लडऩे की प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है। पता नहीं वो कौन मूर्ख था जिसने हमें मिट्टी से नफरत करना सिखाया। राजनीति और साहित्य में तो एक जोरदार मुहावरा है- अपनी मिट्टी से जुड़ो।
कुछ नेता तो इस मुहावरे पर इतना जोरदार अमल करते हैं कि जब मौका मिले अपने बचपन के दिनों को याद कर आंसू बहाते रहते हैं। वे अपने बचपन को अपने संघर्ष के लिए कम वरन अपने वोटरों की सहानुभूति पाने को ज्यादा याद करते हैं। किसी के पिता किसान रहे हों, बचपन में समोसे बेचे हों या गांव में रह कर पढ़ाई की हो तो चालीस बरस लुटियन जोन में रह कर विलासी वस्त्र धारण करने और शानदार लग्जरी कारों के इस्तेमाल के बाद भी वह अपने बचपन को बार-बार याद करता रहता है।
कभी कोई 5-7 बरस में एक बार किसी दलित के घर जीम आता है या किसी गरीब के बच्चे के सिर पर हाथ फेर देता है। कई नेता तो ऐसे हैं जिनके जाने से पहले उनके कारकून कच्ची बस्तियों में खुशबूदार साबुन, शैम्पू, मंजन बांट कर आते हैं ताकि नेताजी से मिलने से पहले उनके बदन खुशबूदार हो जाए। यही हाल साहित्य का है। अच्छे-अच्छे साहित्यकर नॉस्टेल्जिक हो अपने बचपन की यादों को कविता बना कर अपने को जमीन का कवि सिद्ध करते रहते हैं। हालांकि उनकी कथित नश्वर रचनाएं समन्दर के किनारे की रेत पर लिखी इबारत जितनी ही क्षणिक होती है जो लहर के झोंके से समाप्त हो जाती है।