पल में तोला, पल में मासा” वाली ढुलमुल विदेश नीति
देश को पहले ही बहुत जख्म दे चुकी है। अब देश और धोखा खाने को तैयार नहीं है। देश
में आज तक जितनी भी सरकारें रहीं उन्होंने बातें तो हमेशा देश हित की ही कीं लेकिन
सच्चे अर्थो में देश के बारे में कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं।
अधिकांश सरकारें
देशहित को भी “वोटों के तराजू” में तौलती रहीं जिसका खमियाजा अब भुगतना पड़ रहा है।
लगता नहीं कि केन्द्र में अब भी वही मोदी सरकार राज कर रही है जिसने सात महीने पहले
पाकिस्तान के साथ विदेश सचिव स्तर की बातचीत आखिरी मौके पर इसलिए रद्द कर दी
क्योंकि पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित का हुर्रियत नेता शब्बीर शाह से
गुफ्तगू करना भारत को नागवार गुजरा था।
वही सरकार अगर अब देश के पूर्व सेनाध्यक्ष
रहे विदेश राज्य मंत्री वी.के. सिंह को उनकी मर्जी के खिलाफ पाकिस्तान उच्चायोग में
आयोजित कार्यक्रम में भेजे तो इसे क्या माना जाए? वो भी उस सूरत में जब पाक
उच्चायोग में उन्हीं अब्दुल बासित के साथ कश्मीर अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक,
सैयद अली शाह गिलानी और यासीन मलिक भी मौजूद हों। एक ही सरकार के इस दोहरे रूख को
जब उनके मंत्री ही नहीं समझ पा रहे तो देश कैसे समझे और क्यों?
पाकिस्तान के
राष्ट्रीय दिवस पर दिल्ली स्थित पाक उच्चायोग में आयोजित समारोह में कश्मीरी
अलगाववादियों को बुलाए जाने का दिन में भाजपा का विरोध करना और शाम को एक मंत्री का
उसी समारोह में जाने का औचित्य किसी की समझ में नहीं आ रहा। सरकार को अपने इस दोहरे
रवैये के बारे में देश को जरूर बताना चाहिए। देश किसी भी सरकार अथवा पार्टी से ऊपर
होता है और जब वह शर्मसार हो तो हर नागरिक का सिर शर्म से झुकना स्वाभाविक है।
पाकिस्तान दिवस कार्यक्रम में वी.के. सिंह को भेजने के पीछे भारत सरकार की कोई बड़ी
नीति रही हो तो उसका खुलासा भी होना चाहिए। अन्यथा सरकार के इस फैसले से देश जो
अर्थ निकाल रहा है उसमें समर्पण की भावना का ही इजहार होता है। जम्मू-कश्मीर में
पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने के बाद केन्द्र सरकार की
पाकिस्तान नीति को लेकर आ रहा बदलाव चौंकाने वाला है।
देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के
नारे लगाकर चुनाव जीतने वाली भाजपा सरकार के इस कदम का सेना के मनोबल पर क्या असर
पड़ेगा? सीमा पर जाकर सैनिकों के साथ दिवाली मनाने वाले प्रधानमंत्री से देश इस तरह
के फैसले की उम्मीद नहीं कर सकता।
ड्यूटी निभाने के लिए कार्यक्रम में जाने की बात
कहने वाले विदेश राज्य मंत्री वी.के. सिंह का नाराजगी जताना ही पर्याप्त नहीं है।
अगर वे राजी नहीं थे तो उन्हें साफ इंकार कर देना चाहिए था। वी.के. सिंह राजनेता से
पहले एक फौजी हैं और उन्हें “राजधर्म” की बजाय “राष्ट्रधर्म” निभाना चाहिए था। सिंह
हौंसला दिखाते तो शायद “सरकार” को भी गलती का अहसास होता।
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