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अहम की अजीब जंग!

Published: May 20, 2015 10:54:00 pm

अगर दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर
मुख्यमंत्री बने अरविन्द केजरीवाल देश के अन्य

Arvind Kejriwal

Arvind Kejriwal

अगर दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर मुख्यमंत्री बने अरविन्द केजरीवाल देश के अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह अपनी पसंद का मुख्यसचिव नहीं बना सकते, अन्य अधिकारियों के तबादले – पदस्थापन नहीं कर सकते, तब यह तो उस जनादेश का अपमान ही हुआ। जरूरत हो तो कानून बदले जाएं लेकिन केन्द्रशासित क्षेत्र के मुख्यमंत्री को भी यह छूट तो होनी ही चाहिए। पढिए इस विषय पर स्पॉटलाइट में जानकारों की राय…

शिवकुमार शर्मा, पूर्व न्यायाधीश
यह क्या हो रहा है दिल्ली में? उप राज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के मध्य तल्खियां क्यों बढ़ती जा रही हैं? क्या दिल्ली सचिवालय के प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति तक कराने का अधिकार मुख्यमंत्री के पास नहीं है? दिल्ली का मुख्यमंत्री क्या अन्य पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से कम शक्तिशाली है? ये कुछ ऎसे प्रश्न हैं जो देश की जनता के मन व मस्तिष्क में उमड़ सकते हैं।


इन प्रश्नों का उत्तर तलाश करने के लिए भारतीय संविधान की ओर रूख करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 1(2)(6) केंद्रशासित प्रदेशों के सम्बंध में है। इसके अनुसार देश की समस्त केंद्रशासित प्रदेश प्रथम अनुसूची में वर्णित हैं। प्रथम अनुसूची के भाग-2 में सात केंद्रशासित प्रदेश यथा दिल्ली, अण्डमान निकोबार, लक्षद्वीप, दादरा नागर हवेली, दमन एवं दीयू, पॉण्डिचेरी व चंडीगढ़ हैं।


अनुच्छेद 239 केंद्रशासित प्रदेश का प्रशासन चलाने का अधिकार राष्ट्रपति को प्रदत्त करता है तथा राष्ट्रपति इस अधिकार का प्रयोग राज्यपाल को केंद्रशासित प्रदेश का प्रशासक नियुक्त करके कर सकता है। अनुच्छेद 239(2) में यह भी निर्देश है कि राज्यपाल प्रशासक के रूप में जो कार्य करेगा वह मंत्रिमंडल की सलाह पर नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से कर सकेगा।


दिल्ली के लिए एक नया अनुच्छेद 239 ए (ए) 01 फरवरी 1992 से जोड़ा गया जिसके द्वारा दिल्ली को “नेशनल केपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली” कहा गया तथा यहां के गवर्नर को “लेफ्टिनेन्ट गवर्नर” यानी उप राज्यपाल के रूप में नामांकित किया गया। ऎसा 69वां संविधान संशोधन अधिनियम 1991 लाकर हुआ। दिल्ली में भी चुनी हुई विधानसभा है, मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रीगण हैं लेकिन पूर्ण राज्य का दर्जा न मिलने के कारण दिल्ली के मंत्रिमंडल की शक्तियां सीमित हैं।


जिस प्रकार पूर्ण राज्य के दर्जा प्राप्त प्रदेशों के मुख्यमंत्री प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्तियां, तबादले आदि करने में स्वतंत्र रहते हैं, दिल्ली इस सम्बंध में पराधीन है। अनुच्छेद 239(2) द्वारा जो स्वतंत्रता दिल्ली के उप राज्यपाल को मिली हुई है, वह दिल्ली के मुख्यमंत्री को उड़ान भरने से रोकती है। और यही ताजा विवाद का मूल है।



इसी कारण वरिष्ठ आईएएस अधिकारी शकुन्तला गैमलिन को कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त करने पर मुख्यमंत्री व उप राज्यपाल के मध्य विवाद बढ़ गया। दिल्ली सरकार ने गैमलिन की नियुक्ति का आदेश अधिसूचित करने वाले प्रधान सचिव (सेवा) अनिंदो मजूमदार के दफ्तर पर ताला लगा दिया। इससे पूर्व हुआ यह था कि अनिंदो मजूमदार को मुख्यमंत्री ने पद से हटा दिया था लेकिन उपराज्यपाल ने उसी शाम अनिंदो का तबादला इस निर्देश के साथ निरस्त कर दिया था कि ऎसा करने से पूर्व उनकी मंजूरी नहीं ली गई थी।

मुख्यमंत्री कार्यालय से सभी अफसरों को यह निर्देश जारी किया गया है कि वे उप राज्यपाल के किसी आदेश की पालना करने से पूर्व मुख्यमंत्री या सम्बंधित मंत्री को सूचना दें। मुख्यमंत्री ने अफसरों से यह भी कहा है कि उन्हें “ट्रान्जेक्शन ऑफ बिजनेस रूल्स” की पालना करनी चाहिए जो सरकार को शक्तियां देते हैं।


यह विचारणीय प्रश्न है कि आखिर उप राज्यपाल दिल्ली सरकार के दैनन्दिन कार्यो में हस्तक्षेप क्यों कर रहे हैं? क्या एक निर्वाचित सरकार को प्रशासन को सुचारू चलाने के लिए अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानान्तरण पदोन्नति आदि का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी पसंद के अफसर नियुक्त नहीं करते? यदि दिल्ली का मुख्यमंत्री अपने चहेते अधिकारी को नियुक्त करना चाहता है तो उसे ऎसा करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं दी जाती? जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि के अधिकारों पर एक नामांकित उप राज्यपाल द्वारा अकारण ही जो रोकटोक की जा रही है वह उपराज्यपाल की निष्पक्षता को संदेह के घेरे में लाती है।


संविधान के निर्माताओं ने अनुच्छेद 239(2) द्वारा उप राज्यपाल को जो स्वतंत्रता दी है, वह मनमानी करने के लिए नहीं दी गई है। लेकिन, उप राज्यपाल से यह तो अपेक्षा की ही जाती है कि वह जो भी कृत्य करेगा उससे निष्पक्षता की झलक अवश्य मिलेगी।


जिन्होंने संविधान का गहराई से अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह से कार्य करता है। किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री सर्वशक्तिशाली होता है पर दिल्ली में तो मुख्यमंत्री को उपहासित किया जा रहा है। यह तो प्रकारान्तर से उस जनता का ही उपहास हुआ जिसने मुख्यमंत्री को चुना। ऎसा तो पहले कभी नहीं हुआ।


एक टीवी चैनल पर उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के विवाद से सम्बंधित चर्चा में कोई यह आरोप लगा रहा था कि दिल्ली में जानबूझ कर संवैधानिक संकट पैदा किया जा रहा है, जिससे चुनी हुई सरकार को ध्वस्त करके राष्ट्रपति शासन लगाया जा सके।


कोई कह रहा था कि उप राज्यपाल पर केन्द्रीय सरकार दबाव बनाकर दिल्ली की सरकार की राह में कांटे बिछा रही है लेकिन मैं इन विचारों से सहमत नहीं हूं। मुझे तो यह अहम का टकराव नजर आता है। जनप्रतिनिधियों को केवल वे ही कृत्य करने चाहिए जो जनहित में हो।


प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति या तबादला इतना बड़ा मुद्दा नहीं है। हां, प्रत्येक मुख्यमंत्री यह चाहता है कि उसके अधीन जो भी अधिकारी कार्य करें वे उसकी पसंद के हों। यह समझ में नहीं आता कि उप राज्यपाल को ऎसी क्या त्वरित आवश्यकता थी कि जिसने उन्हें मुख्यमंत्री के निर्णय को बदलने के लिए बाध्य किया। उप राज्यपाल की कार्यशैली संदेह से परे होनी चाहिए। उन्हें सरकार के दैनंदिन कार्यो में दखल से बचना चाहिए।


ये समझना जरूरी है कि केजरीवाल चुने हुए मुख्यमंत्री हैं और जब तक वे कोई असंवैधानिक कार्य न करें, उन्हें शासन चलाने की पूरी छूट होनी चाहिए। अब राष्ट्रपति तक मुख्यमंत्री गुहार लगाने पहुंच गए हैं।


कब से यह मांग की जा रही है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाय। पर ऎसा होने वाला नहीं है और जब तक ऎसा नहीं होगा, दिल्ली के मुख्यमंत्री की राह आसान नहीं होने वाली। संविधान ने तो उसे हीनता का शिकार नहीं बनाया है किन्तु जनता ने उसे भारी मतों से विजयी बनाकर उसे केन्द्र करकार की आंख की किरकिरी बना दिया है।

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