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कर तो बजट में ही हो

Published: Feb 05, 2016 05:48:00 am

करारोपण करना या करों में छूट देना केन्द्र व राज्य सरकारों का
विशेषाधिकार है, इसमें कोई संशय नहीं। लेकिन, संवैधानिक परिपाटी यह भी कहती
है कि

Budget

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करारोपण करना या करों में छूट देना केन्द्र व राज्य सरकारों का विशेषाधिकार है, इसमें कोई संशय नहीं। लेकिन, संवैधानिक परिपाटी यह भी कहती है कि सरकारों को यह काम बजट पेश करते समय ही करना चाहिए। पिछले सालों में यह देखने में आ रहा है कि केन्द्र हो या फिर राज्यों की सरकारें लगभग सभी, बजट पेश करने के कुछ पहले व बीच में ही जनता पर करों का बोझा लाद देती है। ताजा उदाहरण राजस्थान का है। लोकलुभावन बजट देने की मंशा के आगे सरकारों का ऐसा कदम कहां तक उचित है? क्या होनी चाहिए बजट परिपाटी और क्यों सरकारें जनता के साथ छलावा करने लगीं हैं? बजट के लिए क्यों पहले की तरह सदनों में बहस होना कम हो गया है? इन सब सवालों पर विशेषज्ञोंं की राय आज के स्पॉट लाइट में…

डॉ. अश्विनी महाजन अर्थशास्त्री
बजट का प्रस्तुतीकरण और केंद्रीय बजट को संसद और राज्य बजट को राज्य विधानसभाओं में पारित कराने की हमारे संसदीय लोकतंत्र की गरिमापूर्ण व्यवस्था है। चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा राजकोषीय नीतियों पर नियंत्रण किया जाता है। चाहे राज्य सरकार का बजट हो या केन्द्र सरकार का वह महज राजस्व और परिव्ययों का ब्यौरा भर नहीं होता है। यह सरकार की आर्थिक नीतियों का प्रतिबिम्ब भी होता है। इसके आधार पर ही संसद और विधानसभाओं में अनुमानों की समीक्षा और अनुमोदन किया जाता है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, वित्त मंत्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सरकार की नीतियों के अनुरूप लेखा-जोखा तैयार करें और बजट में ही नीतियों की विधिवत घोषणा हो। शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च हो या सड़क निर्माण के लिए आंवटन सभी सरकार की नीतियों के ही प्रतिबिम्ब होते हैं। इस प्रकार बजट की घोषणाएं संसदीय प्रणाली की गरिमा के प्रतीक हैं।

बजट में नहीं होता जिक्र
यह देखने में आ रहा है कि लेकिन पिछले कुछ सालों से बजट की गरिमा कम हुई है। सरकारें बजट में टैक्स वृद्धि से बचने की कोशिश करती हैं ताकि आलोचना कम हो । उदहारण के तौर पर पिछले एक साल में घटती तेल कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को ना देते हुए सरकार ने करों में बेताहशा वृद्धि की। तेल से एक्साइज ड्यूटी 2014-15 में 78,500 करोड़ से बढ़ाकर 2015-16 में 1.50 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचा दी गई। गौरतलब है कि इसे बजट में अनुमोदित नहीं करवाया गया था। इसके अलावा सीमा शुल्क में तो आए दिन बदलाव होते रहते हैं। बजट से अलग कई बार राज्यों को भी कई प्रकार की सहायता दी जाती है। जिनका बजट में कोई जिक्र नहीं होता है।

इसी तरह राज्य सरकारें वर्ष भर में कई बार बजट से एकदम पहले करों में भारी वृद्धि कर देती हैं। हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा तीन महत्वपूर्ण टैक्सों में वृद्धि इसका ताजा उदाहरण है। ऐसे में जब बजट पेश होता है तो उसमें पिछले साल के संशोधित अनुमान और आगामी वर्षोंं के बजट अनुमानों के अलावा नई बात नहीं होती। बजट में नवीन नीतियों और कार्यक्रमों की जानकारी होना भी बजट का अहम हिस्सा होता है। आज जब दुनियाभर में मंदी का माहौल है और देश के औधोगिक क्षेत्र में प्रगति रुकी हुई है। अन्तरराष्ट्रीय बाजार में रुपया गिर रहा है। ऐसे में बजट के प्रति सरकारों का यह रवैया उचित नहीं ।

जरूरतों पर हो ध्यान
सरकारों से स्वभाविक अपेक्षा है कि देश में ग्रोथ विशेष तौर पर कृषि और उधोग पर विशेष ध्यान दे। अभी तो हो यह रहा है कि सरकारें मूलभूत क्षेत्रों शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च लगातार घटाती जा रही है। महंगाई और गरीबी बढ़ती जा रही है। आज जरूरत इस बात की है कि गरीब लोगों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें। सरकार बजट की तकनीकी बारीकियों और आंकड़ों की बाजीगरी से लोगों को उलझाने की बजाए सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाए बजट का निर्माण कर देश में खुशहाली लाने का काम करे।

बजट की घटती गरिमा

देवेंद्र शास्त्री वरिष्ठ पत्रकार
एक जमाना था जब केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, हर आम ओ खास को बजट का इंतजार रहता था। क्या आएगा बजट में, यह सवाल साल भर लोगों के सामने यक्ष प्रश्न बना रहता था। सरकार नए कर लगाएगी या राहत देगी? नीतिगत प्रस्तावों पर सरकार क्या करने वाली है? केवल बजट भाषण से ही लोगों की उत्कंठा मिटती थी। वित्त मंत्री और बजट बनाने वाले अधिकारी, कर्मचारी महीनों अपने कमरों में बंद रहते थे। यह सब अब भी हो रहा है पर केवल औपचारिकता भर के लिए। अब बजट के मायने बदल गए हैं।

वोटों की राजनीति ने सरकारों को यह अहसास करवा दिया है कि कड़ा कदम उठाना है तो यह काम बजट से पहले कर लिया जाय। बजट पर सबकी नजर रहती है। अगर उस मौके पर कड़वी दवा पिलाई गई तो जनता में सामूहिक नाराजगी पैदा हो सकती है। यह नाराजगी सरकारों को हर स्तर पर परेशान करती है। वोटों का खमियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। राजस्थान सरकार ने हाल ही कुछ वस्तुओं की वैट दरों में इजाफा किया है।

कारण बताया जा रहा है कि पेट्रोलियम की कीमतों में लगातार गिरावट से सरकार को कर राजस्व में भारी घाटा लगा है। आपात स्थिति ऐसी है कि बजट का इंतजार नहीं किया जा सकता। यहां तक कि राज्य सरकार ने बजट प्रस्तावों को लेकर व्यापार और उद्योगों के प्रतिनिधियों के साथ पूर्व निर्धारित चर्चा की प्रतीक्षा करना भी मुनासिब नहीं समझा। सवाल है कि क्या लोग राज्य सरकार के इस तर्क पर विश्वास कर लेंगे क्योंकि पहली बात तो यह कि यह नौबत एक दिन में नहीं आई। पेट्रोल की कीमतों में गिरावट एकाएक नहीं आई है। चारों तरफ से लगातार यही कहा जा रहा था कि पेट्रोलियम के दाम और गिरेंगे। ऐसे में क्या राज्य के वित्तीय प्रबंधक सो रहे थे। सच पूछा जाए तो राज्य की माली हालत बदतर हुई है।

राजस्व वृद्धि की गारंटी नहीं
केंद्र हो या राज्य, बजट पूर्व करारोपण जहां भी हो रहे हैं, जनता को कुछ दिनों बाद ही आने वाले बजट में एक और झटका खाने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस तरह के प्रयासों के रूप में दी गई कड़वी दवाई तो मरीज को होश में लाने की पहली कोशिश होती है। इलाज तो बजट में ही किया जाता है। बस, दवा का ओवरडोज न हो इसलिए एक अंतराल के साथ राज्य व केंद्र ऐसे इलाज करने लगे हैं। जो लोग सस्ते पेट्रोल-डीजल से वस्तुओं की कीमतों में गिरावट की आशा कर रहे थे, उन्हें अभी और निराशा मिलनी है। राजस्थान ही नहीं कई अन्य राज्य पहले ही से अपने पड़ोसी राज्यों से ज्यादा वैट और अन्य करों की वसूली करते रहे हैं। भले ही वे उम्मीद करें कि इससे राज्य सरकारों को राजस्व ज्यादा मिलेगा लेकिन पड़ोसी राज्यों में सस्ता माल होने पर स्थानीय व्यापारी कालाबाजारी नहीं करेंगे, इस बात की गारंटी कौन देगा?

यह जनता से छलावा
प्रो. एम.एम. अंसारी अर्थशास्त्री
सामान्य प्रक्रिया तो यह है कि केन्द्र और राज्य सरकारों को करों में बढ़ोतरी या कमी करनी हो तो उसके बारे में लोकसभा व विधानसभाओं में बहस करानी चाहिए। लेकिन अक्सर यह देखा जा रहा है कि लोक लुभावन बजट पेश करने के फेर में इस संसदीय प्रक्रिया का सरकारें खुला उल्लंघन करने लगी है। करारोपण का काम बजट पेश करने के पहले और इसके बाद तक होने लगा है। बजट में अच्छी-अच्छी घोषणाएं करने के साथ निवेश बढ़ाने के थोथे वादे किए जाने लगे हैं। एक तरह से आम जनता के साथ यह छलावा करने की कोशिश की जाने लगीं है।

चर्चा तक नहीं होती
मेरी राय में यह सब नितांत असंवेधानिक व नैतिकता के खिलाफ है। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होना चाहिए। हम देखेंगे कि आम बजट और रेल बजट आएगा तो सरकार इसे संतुलित बजट बताने का प्रयास करेंगी। लेकिन बजट से पहले और बजट के बाद जो करारोपण पिछले दरवाजे से कर चुके हैं या करने वाले हैं उसके बारे में कहीं चर्चा तक नहीं होती। वस्तुत: सरकारों का ध्यान इस ओर तो रहता ही नहीं कि जो बजट प्रावधान पहले किए गए थे उनकी क्रियान्विति कहां तक हो पाई और कहां तय बजट का उपयोग हो ही नहीं पाया।

हम यह भी देख रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की लगातार गिरती कीमतों का जो फायदा आम उपभोक्ता को होना चाहिए था वह नहीं मिल रहा। सरकारों को ध्यान तरह-तरह के सैस लगाने में ज्यादा रहता है। हम महंगाई के लिए जिम्मेदार तेल की बढ़ती कीमतों को मानते रहते हैं। यह सही भी है कि तेल की कीमतों के बढऩे का सीधा असर आम जनता से जुड़ी वस्तुओं पर पड़ता है। लेकिन तेल की कीमतों में गिरावट का जो असर होना चाहिए वह तो देखने को ही नहीं मिल रहा। जाहिर सी बात है कि कम से कम माल भाड़ा व यात्री भाड़ा तो कम होना ही चाहिए। जनता को फायदा मिलने के बजाए महंगाई लगातार बढ़ती ही जा रही है और सरकारों का ध्यान इस पर अंकुश लगाने की ओर कतई नहीं है।

असली मार सामान्य वर्ग पर
बजट पूर्व व बाद में करारोपण पर ही सरकारों का ध्यान ज्यादा रहता है। कभी यह सुनने में नहीं आता कि अमुक वस्तु पर कर कम कर दिया गया। यह तो आम करदाता के साथ सरासर धोखाधड़ी है। उसकी आंखों में धूल झोंकने जैसा है। एक तथ्य यह भी है कि करों में वृद्धि का असर धनाढ्य वर्ग पर कम पड़ता है। क्योंकि वह इन सबको सहन करने की स्थिति में होता है। असली मार तो सामान्य वर्ग पर पड़ती है जो करों में बढ़ोतरी के इस खेल को समझ ही नहीं पाता। मैं तो कहूंगा कि पैसों का लेन-देन ही भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि सरकारों की यह कार्यप्रणाली भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आती है। आम व्यक्ति के साथ यह खुली लूट ही कही जाएगी।

बजट पूर्व पिला दी जाती है कड़वी दवा
अरविंद सेन आर्थिक मामलों के जानकार
कहा जाता है कि अगर किसी को जहर की भी बेहद हल्की खुराक नियमित तौर पर दी जाए तो एक वक्त आता है जब वह शख्स जहर का अभ्यस्त हो जाता है और जहर असर करना बंद कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी सरकार यह मान चली है कि जनता पर करों का बोझ अगर छोटी-छोटी खुराकों में बढ़ाया जाएगा तो मकसद भी पूरा हो जाएगा और लोगों के गुस्से का सामना भी नहीं करना पड़ेगा।

अमीरों को राहतें
चूंकि उदारीकरण के बाद से हर साल बजट में कॉरपोरेट वर्ग को नियम की तरह छूट और सब्सिडी (पिछले बजट में सुपर रिच और कॉरपोरेट समूहों की दी गई 5.5 लाख करोड़ की कर छूटों को याद करें) दी जाती रही हैं, लिहाजा आम आदमी भी बजट से छूट और राहतें पाने की खुशफहमी पाले रहता है। ऐसे में, मूल्यवर्धित कर (वैट) और मनोरंजन कर में हालिया इजाफे और स्वच्छ भारत के नाम पर लागू किए उपकर (स्वच्छ भारत सेस) को किस तरह देखा जाए? एक जवाब तो यह है कि सरकार अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए ‘कड़वी दवाÓ की खुराक पहले ही पिला दे रही हैं।

बजट में अमीर वर्ग और कॉरपोरेट समूहों को पहले की भांति बड़ी कर राहतें (बीते बजट के आंकड़े 5.5 लाख करोड़ से भी ज्यादा कर राहतों की संभावना खबरों में जताई गई है) दी जानी है। ऐसे में कॉरपोरेट समूहों को दी गई इतनी बड़ी छूटों को जायज ठहराने और इसके बरअक्स विशाल गरीब व मध्यम वर्ग को शांत करने के लिए आयकर की न्यूनतम सीमा में रत्तीभर इजाफा, सेवा कर में बेहद कम छूट या इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों पर करों में मामूली राहत जैसी घोषणाएं सरकार को रस्मी तौर पर बजट में करनी पड़ती हैं। जाहिर है, सरकार ने अपना ‘कड़वा कामÓ पहले ही निपटा लिया है और अब बजट में छोटी-मोटी राहतों की घोषणाएं करके वाहवाही लूटने की कोशिश होगी।

घाटे का तर्क ठीक नहीं
तर्क दिया जा सकता है कि सरकार ने राजकोषीय घाटा पाटने के लिए ऐसा किया है और सरकार की बढ़ी हुई आमदनी का फायदा भी आखिरकार लोगों को ही मिलेगा। हालांकि व्यवहारिकता के पैमाने पर यह तर्क भी खरा नहीं उतरता है। पहली बात, अगर सरकार राजकोषीय घाटे को प्रस्तावित (जीडीपी का तीन फीसदी) सीमा के भीतर रखने को वचनबद्ध है तो इसकी कीमत केवल गरीब और मध्यमवर्ग ही क्यों चुकाए? क्यों नहीं धनाढ्य वर्ग या सुपर रिच कैटेगरी पर लगने वाले करों में इजाफा किया जाता है?

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भी भारत के अति धनाढ्य वर्ग पर लागू कर की कम दरों पर अफसोस जताते हुए इसमें बढ़ोतरी की वकालत की थी। सरकार के पास दूसरा विकल्प यह भी खुला है कि कंपनियों और अमीरों को दी जा रही 5.5 लाख करोड़ रुपए की कर रियायतों को खत्म कर दे, ऐसे में न केवल राजकोषीय घाटा पूरी तरह खत्म हो जाएगा बल्कि सरकार के पास एक बहुत बड़ी रकम विकास और कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खर्च करने के लिए भी उपलब्ध रहेगी। यह मान भी लिया जाए कि सरकार बढ़े हुए करों के जरिए अपनी आय में इजाफा करके विकास और कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खर्च बढ़ाएगी, तब भी सरकार के पास अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए दूसरे उत्पादक और ज्यादा कारगर तरीके उपलब्ध हैं।

दुनियाभर के अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि अगर एक सीमा के बाद करों में इजाफा किया जाता है तो लोग कर चोरी की दिशा में बढ़ते है इसलिए करों की मुलायम दरें ही बेहतर हैं। दूसरा, फिलहाल इस वक्त पूरी दुनिया की आर्थिक सोच इस बात की वकालत कर रही है कि सरकारों को आय के अनुपात में सबसे कम कर अदा करने वाले सुपर रिच लोगों और कॉरपोरेट समूहों को ज्यादा कर देने के लिए बाध्य करना चाहिए।

कौन मानेगा ?
दुनिया के अर्थशास्त्री मानते हैं कि एक सीमा के बाद करों में बढ़ोतरी की जाती है तो लोग कर चोरी की दिशा में आगे बढ़ते हैं इसीलिए करों की मुलायम दरें ही बेहतर हैं। दुनिया की आर्थिक सोच इस बात की वकालत कर रही है कि सरकारों को आय के अनुपात में सबसे कम कर अदा करने वाले सुपर रिच और कॉरपोरेट समूहों को ज्यादा कर के लिए बाध्य किया जाए। बहरहाल, जिस सरकार ने बीते माह स्टार्टअप कंपनियों को 10 हजार करोड़ रुपए का फंड और कई कर राहतें देने का ऐलान किया हो और उसके पास राजस्व की कमी है, यह कौन स्वीकार करेगा?
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