व्यंग्य राही की कलम से
अपने प्यारे देश में बीमारियों की कमी नहीं है। आपको अपने इर्दगिर्द नाना प्रकार की चलती-फिरती बीमारियां नजर आ जाती हैं। लेकिन अपने बाप को ‘बीमारी’ समझने का दौर अब गया। बाप चाहे जिंदा हो या मृत, इसके बगैर हम हिन्दुस्तानी अपना वजूद कायम नहीं रखते। प्रत्येक भारतीय बाप यह चाहता है कि उसका पुत्र उसकी राह पर चले और आगे भी बढ़े। अगर बेटा उस पगडंडी से रत्ती भर भी इधर-उधर होता है तो बाप उसे नालायक करार देने में एक क्षण भी नहीं लगाता। बेटा चाहे कितना भी बुद्धिमान हो, लेकिन बाप उसे सदैव मूर्ख ही मानता है।
हालांकि, हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि जब बाप के जूते बेटे के पांव में आने लगें तो उसे ‘पुत्र’ नहीं ‘मित्र’ मान लेना चाहिए। लेकिन हिदायतें सिर्फ सुनने के लिए होती हैं ‘मानने’ के लिए नहीं। यूपी का ही उदाहरण ले लीजिए। बाप बेटे को ‘स्वतंत्र’ करने को तैयार नहीं। हालांकि पिता ने ही अपने पुत्र को ‘कुर्सी’ पर बिठाया।
पूरे चार साल तक बेटा, सार्वजनिक रूप से बाप की डांट-फटकार तो सुनता ही रहा साथ ही चाचा, अंकल और बाप के दलगत दोस्त की हिदायतें सुनता-सुनता इतना ‘पक’ गया कि उसने एक झटके से न केवल अपनी ‘आजादी’ की घोषणा कर दी वरन् बाप की ‘साइकिल’ भी आपने नाम करा ली। अपने देश में बाप अपने बेटों को पतंग की तरह उड़ाना चाहते हैं।
उनकी अभिलाषा होती है कि बेटा सात आसमान की ऊंचाइयों तक उड़े लेकिन वे डोर अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। हम तो देशभर के बापों से यही इल्तिजा करते हैं-अरे भाई बापों। बेटों को घोड़ा समझ कर लगाम अपने हाथों में मत रखो। उन्हें खुला छोड़ो। भागने-दौडऩे दो। गिरने-संभलने दो। अपने बापों की बात मानकर तुमने कितने कद्दू काट लिए। बेटे भी कम नहीं। वे तो मृत बाप के नाम तक की तख्ती गले में लटकाए घूमते रहते हैं। ऐसे बेटे भी हैं जो जिन्दा बाप से करते हैं ‘दंगा’ और मरते ही उसे पहुंचाते हैं ‘गंगा’।