सबसे बड़ी परेशानी हमारे देश में यही है कि समस्याओं की वजह पता होने के बावजूद उनका निदान नहीं हो पाता। रेलवे का उदाहरण ताजा-ताजा सामने आया है। संसदीय समिति की रिपोर्ट में रेल हादसों का मूल कारण ड्राइवरों से जरूरत से अधिक काम लेना बताया है। रेलवे में ड्राइवरों के 20 फीसदी पद खाली चल रहे हैं। जितने ड्राइवर हैं उनमें से 10 फीसदी मेडिकल रूप से रेल चलाने के अयोग्य हैं। यानी मोटे तौर पर रेलवे में 30 फीसदी ड्राइवरों की कमी है।
ऐसा नहीं है कि संसदीय समिति की रिपोर्ट में पहली बार इस तरह की जानकारी सामने आई होगी। रेलवे में ड्राइवरों की कमी का मुद्दा रह-रह कर उठता आया है लेकिन उस तरफ ध्यान देेने की फुर्सत शायद किसी के पास नहीं। यूं तो रेल बजट में हर बार रेल यात्रियों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही जाती है । बड़ी-बड़ी योजनाएं भी बनती हैं। लेकिन बात घोषणा से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाती। केंद्र में आई भाजपा सरकार भी पिछले दो रेल बजटों में यात्री सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान देने की बात कह रही है लेकिन इसका नतीजा अब तक सामने नहीं आया है।
संसदीय समिति की रिपोर्ट में यह बात प्रमुखता से उठाई गई है कि ड्राइवरों की सुविधा व काम के घंटों की जानकारी 2013 में सौंपे जाने के बावजूद रेलवे बोर्ड आज तक उस पर अमल नहीं कर पाया। अमल क्यों नहीं हुआ, यही मुद्दा जांच का है। बुलेट ट्रेन चलाने की घोषणा रेलवे को आगे ले जाने का एक भाग तो हो सकता है लेकिन यात्री सुरक्षा व सुविधाएं बढ़ाए बिना रेलवे अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती।
भारत दुनिया के उन चंद देशों में से एक है जहां रेल दुर्घटनाएं अधिक होती हैं। सरकार रेलवे के स्तर को वाकई सुधारना चाहती है तो उसे सबसे पहले रेलवे सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। ड्राइवरों की कमी दूर करनी होगी और बिना फाटक वाले रेलवे क्रॉसिंग की संख्या भी कम करनी होगी। सरकारी लापरवाही से होने वाले रेल हादसे भविष्य में नहीं हों इसके लिए रिपोर्ट पर सख्ती से अमल करना ही होगा।