पुराने सेफोलोजिस्ट योगेन्द्र यादव के हम इसलिए मुरीद थे कि वे जो अपना विश्लेषण करते थे, वह कमाल का होता था। वे हमेशा आम आदमी का प्रतिनिधि लगते। बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी, साधारण वेशभूषा और गले में लटके गमछे से वे उस इंसान की तरह दिखते जिसके घर में एक कमाने वाला और ग्यारह खाने वाले हों, जिसके कंधों पर बेरोजगार भाइयों, कुंआरी बहनों और बूढ़े माता-पिता की जिम्मेदारी हो। उन्होंने केजरीवाल एण्ड कम्पनी के साथ आम आदमी पार्टी बनाई और जल्दी ही उन्हें ‘आप” वालों ने कान पकड़ कर पार्टी से बाहर भी कर दिया क्योंकि वे उस राजनीतिक दल में कुछ बुनियादी परिवर्तन करना चाह रहे थे जो केजी बाबू को ठीक नहीं लग रहे थे। अब योगेन्द्र कह रहे हैं कि लोगों ने ‘आप’ को मंदिर समझा था लेकिन वह तो मूर्तियों की दुकान निकली।
कसम से हम यादव साहब की इसी अदा पर कुबान हैं। वे अपनी बातों में बड़े जोरदार मुहावरे इस्तेमाल करते हैं। जो झटका योगेन्द्र भाई को ‘आप’ से लगा है वही देश की जनता को मोदी सरकार से लग रहा है। आप जब भौंचक रह जाएंगे जब आप साक्षात् सुन्दर मूर्तियां देखकर किसी जगह घुसे और वहां का मालिक मूर्तियों का कारोबारी निकले। लेकिन उस वक्त तो आप आसमान से सीधे धरती पर आकर गिरेंगे जब आपको पता चलेगा कि जिस जगह बड़े-बड़े अक्षरों में ‘मंदिर’ लिख रखा है दरअसल वहां तो ‘दुकान’ चलाई जा रही है।
अब इस देश के कौन-कौन से मंदिर श्रद्धा का केन्द्र न रह कर एक व्यापारिक प्रतिष्ठान बन चुके हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। आप तो ‘गूगल’ कीजिए और घर बैठे सब कुछ जान लीजिए। अब योगेन्द्र यादव कह रहे हैं कि वे नई राजनीतिक पार्टी बनाएंगे। अच्छी बात है। लेकिन अनुभवी यादव साहब यह क्यों भूल जाते हैं कि इस देश में सारी राजनीतिक पार्टियां उसी ढर्रे पर चलती रही हैं जो ‘कांग्रेस’ ने तय कर रखा है।
आप चाहे तो किसी भी राजनीतिक दल पर नजर डाल लीजिए उनकी कार्य संस्कृति और कांग्रेस की कार्यप्रणाली में आपको ज्यादा भेद नजर नहीं आएगा सिवा कुछ मूर्तियों के। जो हरेक राजनीतिक दल में अलग-अलग हैं। मामला उस ‘रामभरोसे होटल’ का सा है जहां की सारी सब्जियों में एक ही मसाला पड़ता है चाहे वह दाल फ्राई हो या पालक पनीर।
योगेन्द्र भाई! हमने और हमारे जैसे लाखों जनों ने ‘मंदिर’ जाना इसलिए छोड़ दिया कि अब उनमें और ‘दुकान’ में कोई अन्तर ही नहीं रह गया है। क्या आप पुराने और वर्तमान राज के ढांचे में कोई परिवर्तन देखते हैं। हमारे लिए तो तब भी महंगाई थी अब भी महंगाई है। हमारे मसलों पर तब के मुखिया भी ‘मौन’ रहते थे आज के भी नहीं बोल रहे। तब की सरकार ‘एक परिवार’ को पूजती थी आज की सरकार ‘एक परिवार’ को कोसती है यानी केन्द्र पर भी अब ‘एक परिवार’ ही हावी है। बताओ अब हम क्या करें। कहां जाकर मरें?
राही