ईरा, रेनू,
निधि, वंदना, अनन्या ये सारे नाम अपने घरों और अड़ौस पड़ौस की बेटियों के हो सकते
हैं लेकिन आज ये नाम इसलिए महत्वपूर्ण हो गए हैं कि इन लड़कियों ने देश की
प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में अव्वल दर्जा प्राप्त किया है। सबसे पहला स्थान पाने
वाली ईरा तो विकलांग है। आमतौर पर हमारी पीढ़ी ने औरतों को मां, बहन और बीवी के रूप
में ही देखा था। तब यानी आजादी के आस-पास और उसके बीस पच्चीस बरस बाद तक औरतों की
दुनिया चक्की, चूल्हे और घर आंगन तक ही सीमित समझी जाती थी।
तब कोई लड़की डॉक्टर या
अध्यापिका बन जाती तो उस घर का रूतबा बढ़ जाता था। अब जमाना बदल गया है। लड़कियां
टॉप कर रही हैं। और टॉप पहन कर इठलाती हुई चल भी रही हैं। दीपिका पादुकोण जैसी सफल
सितारा साफ -साफ कहती फिर रही है कि वह अपनी जिंदगी की मालिक खुद है। कोई उसका
आका-काका नहीं है। यूं भी बेटियां किसे अच्छे नहीं लगती। बेटी तो उस मां को भी
अच्छी लगती है जो उसके जन्म पर आंसू बहाती है। लेकिन आज भी पता नहीं क्यों लोग
बेटों को बेटी की अपेक्षा ज्यादा तरजीह देते हैं।
यूं तो बेटे भी प्यारे होते हैं ,
वे राजदुलारे होते हैं पर बेटा ही सब कुछ है और बेटी उसके सामने कुछ भी नहीं यह सोच
जितनी जल्दी पुरानी पड़ जाए उतना ही बेहतर होगा। हालांकि एक बात हम बेटियों से भी
साझा करना चाहते हैं बावजूद इस खतरे के कि यह कहते ही हमें स्त्री विरोधी तक करार
दिया जा सकता है।
कई दिन बाद कल रात हम अपने मोबाइल पर फेस बुक खाते को खंगाल रहे
थे। अचानक एक नोटिफिकेशन आया जिसमें बॉलीवुड नायिकाओं की रंगारंग तस्वीरें थी।
उत्सुकतावश हमने उसे खोला तो पाया कि लगभग हरेक नायिका ने अल्पतम वस्त्रों में अपनी
तस्वीरें वहां डाल रखी थी। ये भी एक सूरत है। दीपिका की बात का सम्मान करते हुए हम
अपनी मर्जी के समर्थक हंै पर मेरी मर्जी का यह तो अर्थ नहीं कि हम एक कच्छी में
सिनेमा हॉल की भीड़ में भी घुस जाएं और लंगोट बांध कर चौराहों पर आवारा घूमें। कई
बार कुछ संजीदा किस्म के लोग गाहे-बगाहे बेटियों को ठीक से वस्त्र पहनने की सलाह दे
बैठते हैं तो बड़ा हंगामा खड़ा हो जाता है। अरे भाई क्या सारी आधुनिकता पूरी पीठ को
खुली दिखलाने में ही है?
जिन बेटियों ने देश के नौकरशाह बनाने वाली परीक्षा को
टॉप किया है क्या वे आधुनिक नहीं हैं? ये लड़कियां तो देश चलाएंगी। बहरहाल लड़कियों
के माता-पिता और परिवारजनों ने तो लaू बांटे ही होंगे। पर सुपर फोर की खबर सुन
हमारा मन भी शाबाश बिटिया कहने को कर रहा है। पर डर भी लगता है कि कहीं कोई सनकी
रोककर कह न दे – सुण रे घोंचू। लुगाई को ज्यादा चाचरे पर रख के घूमना ठीक नहीं
होता। ज्यादा लाड़ प्यार से छोरियां माथे पे नाचेंगी। समझ गया कि नहीं।
राही