एकात्म मानववाद से लेकर सिद्धांतों-नीतियों और राजनीति
में शुचिता की लम्बी-चौड़ी बातें करने वाली भारतीय जनता पार्टी का एकमात्र लक्ष्य
क्या सत्ता हथियाना ही रह गया है? बिहार में पार्टी की तरफ से घोषित उम्मीदवारों की
सूची देखकर तो यही लगता है कि पार्टी दिल्ली की हार को वहां हर हाल में जीत में
बदलना चाहती है। शायद इसीलिए उसने दागी प्रत्याशियों पर दांव खेलने से परहेज नहीं
किया है। बात किसी विरोधी दल की नहीं, खुद भाजपा के सांसद और विधायक ही बाहुबलियों
को टिकट बेचने का आरोप लगा रहे हैं। समर्पित कार्यकर्ताओं की कीमत पर दूसरे दलों से
आने वाले दल-बदलुओं को टिकट से नवाजा जा रहा है।
बेशक राजनीति में चुनाव जीतने के
लिए कई हथकंडे अपनाए जाते हैं। लेकिन चुनाव जीतने के लिए क्या अपराधियों को टिकट
देना जरूरी है? क्या पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों के दम पर जीत का भरोसा भाजपा
को नहीं रह गया है? बातें दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आदर्शो की
लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और। भाजपा कह सकती है कि दूसरे दल भी तो बाहुबलियों को टिकट
देते हैं। दल-बदलुओं को गले लगाते हैं।
राजनीति में व्याप्त इन्हीं बुराइयों के
खिलाफ आवाज उठाकर ही भाजपा आज इस मुकाम पर पहुंची है। पैसे लेकर टिकट बांटने के
आरोप यदि अपने सांसद और विधायक ही लगाने लग जाएं तो क्या पार्टी आलाकमान का फर्ज
नहीं बनता कि मामले की जांच करा ली जाए? लीपा-पोती करने की बजाय हकीकत का पता लगाया
जाए और वाकई गलती हुई है तो इसे सुधारा जाए। गलती सुधारने से कोई छोटा नहीं हो
जाता। लेकिन राजनाथ सिंह के बयान को देखकर यही लगता है कि पार्टी ने ऎसे आरोपों को
गंभीरता से लेना बंद ही कर दिया है।
वे जब यह कहते हैं कि पार्टी ने सोच-समझकर टिकट
बांटे हैं तो साफ हो जाता है कि पार्टी की नजर में चुनाव जीतना ही महत्वपूर्ण रह
गया है। पार्टी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि प्रत्याशी अपराधी है अथवा दल-बदलू। लगता
है भाजपा के लिए भी राजनीति अब पूरी तरह व्यवसाय बन चुकी है।
ऎसा व्यवसाय जिसमें
जीत के लिए कोई भी दांव खेलने से परहेज नहीं किया जाए। जनसंघ से लेकर भारतीय जनता
पार्टी के 35 साल के सफर में पार्टी ने हमेशा यह दिखाने की कोशिश की कि वह दूसरे
दलों से अलग है और साफ-सुथरी राजनीति में यकीन करती है। लेकिन बीते कुछ सालों में
पार्टी उसी रास्ते पर चलती नजर आ रही है, जिसके लिए वह दूसरे दलों को कठघरे में
खड़ा करती रही है। अब पार्टी को ही तय करना है कि उसे सत्ता प्यारी है अथवा अपने
सिद्धांत और नीतियां।