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तब और अब

Published: Jul 30, 2015 12:01:00 am

यह हो क्या रहा है? कुछ समझ ही नहीं आ रहा। आपा-धापी के दौर
पहले भी रहे हैं

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यह हो क्या रहा है? कुछ समझ ही नहीं आ रहा। आपा-धापी के दौर पहले भी रहे हैं लेकिन जैसी राजनीति आज चल रही है वैसी कभी नहीं देखी। आम चुनाव हुए सवा साल बीत गए, यही लग रहा है जैसे होने वाले हों।


न तो सत्ताधारी अपनी जीत पचा पा रहे हैं और न विपक्षी यह मानने को तैयार हैं कि वे अच्छी तरह हार चुके। अब भी आरोप-प्रत्यारोप, जुमलेबाजी, तंज, वादे-इरादे का वैसा ही माहौल लगता है। कौन है जिम्मेदार? क्या पक्ष! क्या विपक्ष? या हम और आप। एक पक्ष को आजादी के बाद पहली बार जनता ने छप्पर फाड़ के स्पष्ट बहुमत दिया।


अब कुछ बड़प्पन तो दिखलाइए। थोड़ा धैर्य तो रखिए। लेकिन वहां बेचैनी है। आने वाले पच्चीस साल तक राज करने की बेचैनी। कभी वे दस साल की बात करते हैं तो कभी पच्चीस साल की। अरे भाई ये बाकी पौने चार साल तो तसल्ली से निकालो। सही काम करोगे तो जनता खुद जिता देगी। दूसरी ओर विपक्ष इतना बेचैन है कि पूछो मत। हथेली पर सरसों उगाना चाहता है।


उसे लग रहा है कि जैसे भी हो सत्ताधारियों में कलह मचे। अपने ऊपर लगे दागी होने के इल्जाम को वे उस तरफ शिफ्ट करना चाह रहे हैं।


उनके खुर्राट सांसद सदन का कामकाज किसी भी सूरत में नहीं होने देने और आरोपितों के इस्तीफे की मांग ठीक उसी अंदाज में कर रहे हैं। जो चार साल पहले तब का “विपक्ष” बखूबी किया करता था और तुर्रा ये कि उनकी दलीलों को हूबहू उसी अंदाज में काटा जा रहा है जो तब का पक्ष अपनी चतुराई से काटता रहता था।


सबसे दिलचस्प बात यह कि आज के तेज तर्रार प्रधानमंत्री भी ठीक उसी तरह मौन साधे बैठे हैं जैसे तब के खामोश हुआ करते थे।


पंद्रह महीनों में तो यहां कुछ खास बदला हुआ नजर नहीं आया। इधर एक नई बीमारी और लगी है। फटाफट इतिहास में घुसने कीं। ऎसी चेष्टा इतनी हड़बड़ी में हो रही है कि पूछो मत।

सदा सज-धज कर रहने वाली हमारी परदेस मंत्री ने पिछले दिनों एक नामी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के मंच पर अपने संबोधन में देश के पहले प्रधानमंत्री का जिक्र तक नहीं किया जबकि उस आयोजन की बुनियाद उन्होंने ही रखी थी।


बाकी सभी आमंत्रित वक्ताओं ने उनका कई बार जिक्र किया। ऎसी छिछली राजनीति आजादी के बाद आज तक नहीं हुई। बेचारी जनता समझ नहीं पा रही है कि उसकी गलती क्या है? एक बात और बता दें। यह रास्ता सीधे-सीधे तानाशाही की तरफ जाता है।

जब संसद अखाड़ा बन गई हो। जब सदनों में दंगल हो रहा हो। जब विचार की जगह व्यक्ति ले रहे हों तब अचानक एक शख्स आता है और व्यवस्था को खूंटी पर टांग कर किवाड़ बंद कर देता है।

ऎसे में प्रिय शायर दुष्यन्त याद आ रहे हैं जिन्होंने कहा है- “कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।” सत्ता के लोभियों की इस चिंघाड़ में आम आदमी के आवाज बेदम हो रही है। – राही

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