मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के बिहार
चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा के बाद नवगठित “जनता परिवार” भले ही विधिवत गुरूवार को
टूटा हो लेकिन इसके विखण्डन की नींव तो गठन के समय ही पड़ चुकी थी। जो परिवार अपने
गठन के साढ़े चार महीने में पार्टी का नाम, चुनाव चिह्न और झंडा तय नहीं कर पाया
उससे टूटने के सिवाय और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी? हर चुनाव से पहले तीसरे
मोर्चे के गठन और जनता परिवार के एक होने के ढोल जोर-शोर से पीटे जाते हैं। कभी
धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जाती है तो कभी “कांग्रेस हराओ-भाजपा हराओ” के नारे
बुलंद होते हैं लेकिन कागजी कवायद के सिवाय नजर कुछ नहीं आता।
बिहार चुनाव की आहट
से इस साल अप्रेल में जब “जनता परिवार” के छह सदस्यों ने एक होने का ऎलान किया तो
राजनीति में परिवर्तन की उम्मीद जगी थी। लगा था कि एक मंच पर आकर ये दल
भाजपा-कांग्रेस का विकल्प बनने का ठोस आधार बनेंगे। लेकिन हमेशा की तरह अहम के
टकराव ने इस बार भी एकता साकार नहीं होने दी।
परिवार के सदस्यों- जद-यू,सपा, राजद,
जदा-एस, इंनेलो और सजपा ने एकता का ऎलान किया था तो लगा था कि शायद इन्होंने इतिहास
से सबक ले लिया है। लेकिन सीटों की खींचतान ने इस बार भी एक होने से पहले ही विदाई
की रस्म अदा कर डाली। इस परिवार पर देश की निगाहें लगी थीं।
लोग देखना चाहते थे कि
इनके लिए धर्मनिरपेक्षता मायने रखती है अथवा सीटों की बंदरबाट। परिवार में एकता की
पहल के मुखिया मुलायम सिंह को नीतीश और लालू की जोड़ी ने दरकिनार कर दिया। फिर वही
हुआ जिसकी आशंका थी। लेकिन परिवार से अलग होने की घोष्ाणा से पहले सपा नेताओं से
पर्दे के पीछे हुई मुलाकातें कुछ सवाल जरूर खड़े करती हैं। जिस भाजपा को रोकने के
लिए छह दलों ने हाथ और दिल मिलाने का फैसला किया था, क्या वही भाजपा उनकी टूट का
कारण बनी है? क्या भाजपा और सपा के बीच पर्दे के पीछे कोई रणनीति बनी है?
राजद
उपाध्यक्ष रघुनाथ झा का पार्टी छोड़ना “आयाराम-गयाराम” की शुरूआत है। चुनाव नजदीक
आते-आते अभी कई चेहरे पाला बदलते नजर आएंगे। वैसे भी राजनीति हमेशा से संभावनाओं का
खेल रही है और आगे भी रहेगी। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि बिहार विधानसभा के
चुनावी नतीजे आने वाले दिनों की राजनीति की दिशा जरूर तय करेंगे। हो सकता है कि
नतीजों के बाद देश की राजनीति पूरी तरह से भाजपा समर्थक और भाजपा विरोधी दलों के
बीच ही सिमटती नजर आए।