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 लोकतंत्र के प्रहरियों का यह पाखण्ड !

Published: Jul 26, 2017 11:28:00 pm

सात दशक के बाद अब लोकतंत्र को परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं लगती। भारतीय लोकतंत्रीय व्यवस्था

Democracy

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सात दशक के बाद अब लोकतंत्र को परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं लगती। भारतीय लोकतंत्रीय व्यवस्था में कई व्यवधान आए। यहां तक कि वर्ष 1975-77 के बीच आंतरिक आपातकाल भी लगा जिसमें व्यवस्था का पहिया थम सा गया। उस दौर से हम उबर भी गए। देश के अनन्य भागों में स्थानीयता व पृथकतावाद की हवा भी चली। इन सब बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद हर पांच वर्ष में लोकतांत्रिक व्यवस्था और मजबूत होती गई।

 आपातकाल के बाद दूसरी बड़ी घटना 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी ढांचे को ध्वस्त करने की हुई जिसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। ऐसा प्रतीत होता है कि हम पुन: आजादी के ठीक बाद की त्रासद स्थिति में पहुंच गए हैं। बड़ी चुनौती धर्म-संप्रदाय की राजनीति के घालमेल के रूप में उभर कर आई है। यह कहां जाकर रुकेगी कहना कठिन है। धर्म-संप्रदाय और राजनीति का संवैधानिक दृष्टि से कोई मेलजोल नहीं है। भारतीय संविधान स्पष्टत: पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) लोकतंत्र की स्थापना करता है।

इस प्रसंग पर संविधान सभा में काफी बहस हुई थी। कतिपय महानुभावों ने धर्म प्रधान राज्य की वकालत की थी और यह भी कहा था कि इस देश की राज्य व्यवस्था धर्मविहीन नहीं होनी चाहिए। संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने इस बात को स्वीकार किया कि भारत जैसे विविध धर्म-संप्रदाय वाले देश की राज्य व्यवस्था को किसी एक धर्म से जोडऩा उचित नहीं होगा। संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा कि सेक्युलरिज्म का अर्थ यह नहीं है कि भारत धर्म विरोधी है।

इसका अर्थ यह है कि भारत का कोई धर्म नहीं होगा, किसी एक धर्म की तुलना में दूसरे को वरीयता नहीं देगा और किसी भी नागरिक से धर्म-संप्रदाय या अन्य कारणों से भेदभाव नहीं बरता जाएगा। पिछले चालीस साल के इतिहास को देखें तो कहा जा सकता है कि संविधान की इस भावना का सही रूप से पालन नहीं हुआ। पिछले दशकों में जितनी बार सांप्रदायिक दंगे हुए उससे तो नहीं लगता कि हमारे शासक संविधान की इस परिभाषा और दृष्टिकोण को मानते हैं। इस राष्ट्र की एकता और अखंडता कई अर्थों में सुरक्षा भी इसी बात पर निर्भर है कि सभी नागरिकों को समान दृष्टि से देखा जाए। इन दिनों एक जबरदस्त स्वर उभर रहा है जो यह कहता है कि राष्ट्र हिंदुओं का है। यह बिलकुल सही नहीं है।

 यह विचार और कतिपय सांप्रदायिक समूहों के कार्यकलाप इस देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे बड़ा खतरा हो सकते हैं। यदि हम अपने पूर्वाग्रह और अंतर्कलह से भरपूर इतिहास को ही देखते रहेंगे तो यह कन्याकुमारी से कश्मीर तक एक राष्ट्र के रूप में शायद ही पहचाना जाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के लगभग सभी राजनीतिक दल सांप्रदायिकता, जाति और प्रांतीयता का खुला खेल, खेल रहे हैं। अब तो यह अंतर करना भी मुश्किल हो गया है कि कौन सा दल सेक्युलर है और कौन सा सांप्रदायिक।

जहां तक सांप्रदायिक दंगों का सवाल है सभी दलों के नेताओं के हाथ खून से रंगे हुए हैं। यह स्पष्ट कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि हमारे देश का राजनीतिक अभिजन न केवल भ्रष्ट है बल्कि पाखंडी भी है। यह कहना मुश्किल है कि कौन समाजवादी है और कौन प्रगतिशील है? अधिकांश लोग परिवारवादी,जातिवादी, सांप्रदायिक हैं। अब शायद ही कोई ऐसा दल या उसका नेता हो जो सांप्रदायिक तत्त्वों पर कीचड़ उछालने का दंभ भर सके क्योंकि वे भी इसी तरह के कारनामों में हिस्सेदार रहे हैं।

देश सांप्रदायिक तत्त्वों के हाथ में बताने वालों से भी लाख टके का प्रश्न यह है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? प्रगतिशील और वामपंथी का चोला ओढ़े वे लोग विफल क्यों हो गए जिन्होंने लंबे समय राज किया? समाजवाद का झंडा फहराने वाले पांच वर्ष में धरती कैसे चाट गए? निश्चित ही वे जातिपरस्त और परिवारवादी थे। यही बात कांग्रेस के संबंध में कही जा सकती है जहां बड़े-बड़े दिग्गज राजनीति के पुराने खिलाड़ी सब एक परिवार को समर्पित हैं। कुछ दल तो ऐसे हैं जो केवल व्यक्ति केंद्रित हैं।

 तमिलनाडु में तो पिछले बीस वर्षों से सारी राजनीति दो व्यक्तियों के इर्दगिर्द घूमती रही। मायावती की पार्टी बसपा में भी किसी अन्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। कांग्रेस जो देशव्यापी बड़ी पार्टी थी वह भी अब एक परिवार की बपौती बनकर रह गई है। देश के विभिन्न राज्यों में जो सत्ता का परिवर्तन होता है उसके पीछे मतदाता मंडल की हताशा ही प्रकट होती है।

इस देश के लोकतंत्र की कमान थामने वाले आम आदमी की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में अक्षम सिद्ध हों तो चिंता होती है। यह कहना होगा कि लोक-लुभावने नारों, शगूफों और भाषणों से जनता का पेट नहीं भरता। आज हमारी सुदृढ़ लोकतंत्र की जड़ों को पलीता वही लोग लगा रहे हैं जो उसके संचालक हैं। एक परिपक्व लोकतंत्र के शासक एवं संचालकों में कहीं अधिक परिपक्वता और गंभीर सोच की आवश्यकता है। उन्हें अपने परिवार, जाति, संप्रदाय और अन्य पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर निर्णय लेना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस देश का मतदाता आपको कभी माफ नहीं करेगा।

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