कुर्बानियां दी जाती हैं, गिनाई नहीं। जैसा कि प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष भी गिना रहे हैं और कांग्रेस प्रवक्ता भी। रक्षाबंधन के दिन भाजपा कार्यालय के भूमि पूजन अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के कुर्बानी देने की बात कही। ये बात उन्होंने क्यों कही, ये तो वे ही जानें लेकिन आम आदमी भी जानता है कि त्याग और बलिदान करने वाले कभी उसकी चर्चा नहीं करते।
आजादी के बाद से जनसंघ या भाजपा के कार्यकर्ताओं ने कुर्बानियां दी तो क्या हुआ? देश के लाखों लोगों ने आजादी के लिए तमाम त्याग किए। जेल गए, डंडे खाए। हंसते-हंसते फांसी पर भी झूल गए। उनके वंशजों ने तो कभी नहीं कहा कि हमारे पूर्वजों ने कुर्बानी दी। जनसंघ और भाजपा कार्यकर्ताओं को यदि 50 साल तक विपरीत प्रवाह से गुजरना पड़ा तो उसे कुर्बानी नहीं, विचारधारा का संघर्ष माना जाएगा। ऐसे संघर्ष के दौर से तमाम दलों के कार्यकर्ताओं को गुजरना पड़ता है।
संघर्ष के बिना न कभी कामयाबी नसीब हुई है और न होगी। एक जमाने में दो सांसदों वाली भाजपा के आज 300 से ज्यादा सांसद हैं तो इसे संघर्ष का परिणाम ही माना जाएगा। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज ‘बदले की राजनीति’ का दौर आ गया है। सरकारें बदलते ही सत्तारूढ़ दलों की तरफ से विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं पर मुकदमे दर्ज कराने की परिपाटी आम है। यह कुर्बानी नहीं बल्कि प्रतिशोध है और इसके चलते कार्यकर्ताओं को परेशान होना पड़ता है। इससे बचना चाहिए।
भाजपा और कांग्रेस आज के दौर में बड़े राजनीतिक दल हैं और इनके शीर्ष नेतृत्व बदले की राजनीति नहीं करने का प्रण ले लें तो राजनीति में आ रही गिरावट को थामा जा सकता है। सत्ता से अधिक जरूरी राजनीतिक मूल्यों और सिद्धंतों को बचाए रखना है। साथ ही ‘कुर्बानी’ अथवा संघर्ष का ढिंढोरा पीटने की नव विकसित हो रही कला पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है।