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सोच शौचालय की, बदलें आदतें भी

Published: May 28, 2015 11:01:00 pm

2अक्टूबर 2014 को शुरू हुआ स्वच्छ भारत अभियान सात महीने बाद भी वह गति नहीं पकड़ पाया है जितनी कि इससे अपेक्षा की जा रही है। अपर्याप्त धन के अलावा एजेंसियों के नियम और भूमिकाओं पर स्पष्टता के अभाव इसके प्रमुख कारण रहे हैं। भ्रम की स्थिति अगले पांच वषोंü में पूरे भारत में […]

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2अक्टूबर 2014 को शुरू हुआ स्वच्छ भारत अभियान सात महीने बाद भी वह गति नहीं पकड़ पाया है जितनी कि इससे अपेक्षा की जा रही है। अपर्याप्त धन के अलावा एजेंसियों के नियम और भूमिकाओं पर स्पष्टता के अभाव इसके प्रमुख कारण रहे हैं।

भ्रम की स्थिति

अगले पांच वषोंü में पूरे भारत में 11 करोड़ से भी अधिक शौचालयों के निर्माण के लिए राशि का प्रबंध और निर्धारण किया जाना है, केन्द्र-राज्य के बीच जिम्मेदारियों और लागत के बंटवारे को लेकर भ्रम की स्थिति ने शौचालय निर्माण कार्य को मंझधार में छोड़ दिया है।


इस बात पर शायद ही आश्चर्य हो कि पिछले वर्ष आवंटित 2,850 करोड़ रूपये का राज्य पर्याप्त उपयोग नहीं कर सके। इस स्थिति ने चालू वर्ष के बजटीय आवंटन को कम करने के लिए प्रेरित किया।


वित्त मंत्रालय के भीतर, इस वर्ष शौचालयों की अपेक्षित संख्या के निर्माण की क्षमता को लेकर पर्याप्त आत्मविश्वास नहीं था। नतीजतन, वर्ष 2015-16 के लिए अनुरोधित धनराशि 12,500 करोड़ रूपए में से केवल 2,625 करोड़ रूपए ही आवंटित किए गए।

खुले में शौच को खत्म करने के लिए अगले पांच वषोंü में भारत को कम से कम 1,33,000 करोड़ रूपए की जरूरत होगी। हालांकि संख्या पर जोर दिया जाना एक चिंताजनक बात है क्योंकि इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की संरचना का प्राथमिक उद्देश्य ये नहीं था बल्कि इसका आधार था, शौचालयों के इस्तेमाल को लेकर लोगों के रवैये में बदलाव लाना जिससे वास्तव में शौचालयों का निर्माण हो सके।


अत: इसका उद्देश्य उन 65 करोड़ लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने का था जो हर दिन खुले आसमान के नीचे शौच करते हैं। ऎसी उम्मीद थी कि स्वच्छ भारत अभियान एक नई महत्वाकांक्षी शुरू
आत होगी। अफसोस की बात यह है कि इस मामले में ऎसा नहीं हुआ।
क्या केवल शौचालय निर्माण पर्याप्त है?

हमारे देश के सरकारी विभाग अपने सामाजिक व्यवहार में तकनीकी बदलाव करने के लिए ना तो प्रशिक्षित हैं और ना ही सक्षम। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बड़े पैमाने पर जागरूकता के माध्यम से व्यवहार में परिवर्तन लाने की दिशा में कार्य निर्धारण नीचे चला गया है। पूर्व में सरकार के कार्यान्वयन उपकरण द्वारा निर्धारित धनराशि का केवल आधा भाग ही उपयोग में लाया जा सका, कार्यक्रम को व्यवहार परिवर्तन प्रक्रिया की दिशा में (पिछले 15 प्रतिशत के मुकाबले) केवल पांच फीसदी बजट ही आवंटित किया गया।


सरकार को इस बात का अनुमान नहीं है कि इस दृष्टिकोण से काम नहीं चलेगा। केवल संख्या-खेल के साथ चलने में समस्या ये है कि इससे ऎसे खराब गुणवत्ता वाले शौचालयों के निर्माण का खतरा है जिनका इस्तेमाल कोई नहीं करेगा।


एक अध्ययन के अनुसार बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान के लगभग 3,200 से भी अधिक ग्रामीण घरों में जो कि शौचालययुक्त हैं अब भी लगभग 45 प्रतिशत घरों का कम से कम एक व्यक्ति खुले में शौच करता है। ऎसा लग सकता है कि यह एक “पुरानी आदतें मुश्किल से छूटती है”

वाला मामला है किन्तु वास्तविकता यह है कि लोगों को अपर्याप्त प्रकाश व्यवस्था वाले एक गंदे शौचालय से बेहतर विकल्प एक खुली जगह पर आराम से शौच करना लग सकता है। लेखक वी.एस.नायपॉल के अनुसार, खुले में शौच करना, एक बिलकुल बंद जगह में घुटन के डर से बच निकलने का रास्ता था।

अब यह है चुनौती


चुनौती केवल वर्ष 2019 तक 11 करोड़ शौचालय निर्मित करने की ही नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें उपयोग में लाया जा सके। यह एक चुनौतीपूर्ण काम है और नीति निर्माताओं को व्यवहार-परिवर्तन के विशेषज्ञों के साथ संलग्न होना होगा जिससे इस तरह की स्थितियां पैदा की जा सकें जिनसे खुले में शौच जाने वाला सोचने के लिए विवश हो। हो सकता है कि सरकार जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही हो मगर अब भी संसाधनों को वहां तैनात किया जाना है, जहां उनकी जरूरत है और पांच वर्ष इस गंदी तस्वीर को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।


ऎसा नहीं है कि यह “पुरानी आदतें मुश्किल से छूटती है” वाला मामला है। सचाई यह है कि अपर्याप्त प्रकाश और गंदे शौचालयों के विपरीत लोग खुले में शौच करना पसंद करते हैं।

सुधिरेंदर शर्मा, पर्यावरणविद्

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