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भरोसे का नाम है डॉक्टर

Published: Jun 30, 2015 10:40:00 pm

बहुत कम प्रोफेशन ऎसे हैं जिनकी समय
के साथ जरूरत लगातार बढ़ती ही गई है। डॉक्टर का पेशा ऎसा ही है। कोई तकनीक और दवा
आज तक डॉक्टर्स का विकल्प नहीं बन सकी

doctor day

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बहुत कम प्रोफेशन ऎसे हैं जिनकी समय के साथ जरूरत लगातार बढ़ती ही गई है। डॉक्टर का पेशा ऎसा ही है। कोई तकनीक और दवा आज तक डॉक्टर्स का विकल्प नहीं बन सकी है। हम और आप किसी की बात मानें अथवा नहीं मानें, पर डॉक्टर की बात जरूर मानते हैं और प्राय: आंख बंद करके मानते हैं।

ऎसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि मरीज डरा हुआ होता है और उसे अपनी चिंता होती है। इसकी वजह यह है कि मरीज को डॉक्टर पर भरोसा होता है। सिर्फ भारत में ही नहीं, यह सारी दुनिया की कहानी है। एक ताजा सर्वे के अनुसार अमरीका में भी नर्स और डॉक्टर्स आज भी ईमानदारी के पैमाने पर सबसे ऊंचे आंके जाने वाले प्रोफेशन हैं। आज के बाजारवादी युग में किसी प्रोफेशन पर ऎसा भरोसा चकित भी करता है और आश्वस्त भी। आज “डॉक्टर्स डे” पर पेश है ऎसे दो डॉक्टरों के साथ बातचीत, जिनके जीवन का लक्ष्य रहा है इस भरोसे पर खरा उतरना।

डॉक्टर को इंसान ने भगवान का दर्जा इसीलिए दिया है कि वह भगवान की दी हुई काया को स्वस्थ रखने में समर्थ है। चिकित्सा को इसीलिए नोबेल पेशा भी माना गया है। आज से करीब 50 साल पहले इस पेशे में आने से पहले इस पेशे की यही महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा मेरे भी जेहन में थी। उस समय हर आम आदमी के जेहन में डॉक्टरों की प्रतिष्ठा उच्चतम स्तर पर होती थी।

जिन भावों और मूल्यों को मन में संजोए मैं इस प्रोफेशन में 1965 में आया, आने के बाद उसे काफी कुछ वैसा ही पाया भी। एमबीबीएस, पीजी, सुपर स्पेशियलिटी की पढ़ाई के दौरान और इसके बाद किसी मरीज की जान बचाने में अतुलनीय संतोष मिलता था। यही मेरे इस क्षेत्र में आने की बड़ी उपलब्घि रही, यह कहना है डॉक्टर नरपत सिंह शेखावत का। “डॉक्टर्स डे” के अवसर पर बातचीत के दौरान डॉक्टर शेखावत ने इस आदर्श पेशे से जुड़े कई अहम् पहलुओं पर प्रकाश डाला। वर्ष 2005 में डॉ. बी. सी. रॉय पुरस्कार से सम्मानित डॉ. शेखावत एसएमएस अस्पताल और जेके लोन अस्पताल के लंबे समय तक अधीक्षक रह चुके हैं तथा वर्तमान में राजस्थान स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय के संघटक मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य एवं नियंत्रक हैँ।

डॉ.शेखावत की सबसे खास बात यह है कि उन्होने कभी निजी प्रेçक्टिस नहीं की, घर पर मरीज देखा भी तो फीस नहीं ली। वे आज भी अपनी पुरानी मारूति कार का ही उपयोग कर रहे हैं। स्कूटर पर चलने में भी उन्होंने कभी शर्म महसूस नहीं की। बड़े प्रशासनिक पदों पर रहने के दौरान और आज भी वे सरकारी गाड़ी और ड्राइवर का उपयोग नहीं करते। यहां प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के अंश:

आज चिकित्सा के पेशे में बाजारवाद हावी हो गया है, आप उसमे खुद को कहीं अकेला नहीं पाते?
जवाब – ऎसा पूरी तरह तो सही नहीं है, लेकिन मंैने हमेशा अपनी आवश्यकताओं को अपने दायरे में रखा और महत्वाकांक्षाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। इसमे मेरे परिवार का भी मुझे पूरा सहयोग मिला। किसी को लग्जरी सुविधाओं का उपभोग करते देखकर भी मेरा मन कभी विचलित नहीं हुआ। बस, जीवन के प्रति इसी धारणा ने कभी मुझे अकेला महसूस नहीं होने दिया। परिवार का भी कभी उलाहना नहीं मिला।

आज आए दिन अस्पतालों में डॉक्टरों से मारपीट की घटनाएं देखने में आ जाती हैं। ऎसा क्यों?
जवाब – इसका सबसे बड़ा कारण आपसी सामंजस्य और संतुलन का अभाव है। अस्पताल में मरीज के आने के बाद कोई भी डॉक्टर जानबूझकर लापरवाही नहीं करता। लेकिन इस समय परिजन भी परेशान होते हैं और उस समय उन्हें डॉक्टर का रेस्पांस सही तरीके से नहीं मिले तो वह आपा खो बैठता है। डॉक्टर भी काम के दबाव में परेशान हो सकता है। ऎसे समय में दोनों को आपसी सम्मान बनाए रखकर धैर्य से काम लें तो कभी ऎसी नौबत ही नहीं आए।

नई पीढ़ी के डॉक्टरों को संदेश।
जवाब – चिकित्सा एक नोबेल पेशा है। नए डॉक्टरों को मरीज की सेवा के उद्देश्य और अपनी आवश्यकताओं को अपने दायरे में रखकर काम करना चाहिए। काम के मूल में ऎसी भावना रही तो उन्हें नाम, काम और दाम सभी कुछ मिलेगा।

आजकल समाज में डॉक्टरों को मिलने वाले सम्मान में पहले के मुकाबले भारी अंतर क्यों आ गया है?
जवाब – पहले डॉक्टरों की मूल भावना मरीज की सेवा थी, लेकिन अब सरकारी नौकरी के प्रति डॉक्टरों का मोह कम हो रहा है। पहले सेवा सर्वोपरि थी, इसीलिए सम्मान भी अधिक मिलता था। लेकिन अब इसमें कुछ परिवर्तन आया है।


भाव तो सेवा का ही रहना चाहिए
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चिकित्सकीय पेशा समाजसेवा है लेकिन आज सामाजिक जरूरतें और आवश्यकताओं की वजह से पेेशे में बाजारवाद हावी है। पर इसका जिम्मेदार डॉक्टर या समाज नहीं बल्कि शासन है। डॉक्टर भी समाज का एक अंग है लेकिन आज कुछ डॉक्टरों की वजह से सभी की छवि खराब हुई है। इसका जिम्मेदार डॉक्टर खुद तो है ही पर समस्या का मूल जिम्मेदार वर्तमान शासन है। यदि सरकार चिकित्सकों की समस्याएं और जनता की जरूरतों को समझेगी तो डॉक्टर धरती का भगवान हमेशा रहेगा। यह कहना है रायपुर के वयोवृद्ध और सबसे पुराने डीके अस्पताल के कार्यकारी अधीक्षक और मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. शांताराम गुप्ता का। रिटायरमेंट के 23 साल गुजर जाने और उम्र के 83 साल के पड़ाव पर होने पर भी निजी प्रेक्टिस कर रहे हैं। पत्रिका से चर्चा के दौरान उन्होंने अनछुए पहलुओं को उजागर किया।

चिकित्सकीय पेशा कैसे और किस सोच के साथ चुना?

उत्तर – मैंने डॉक्टरी पेशा समाज सेवा करने का सफल माध्यम होना तथा इससे बड़ी हस्ती के रूप में पहचान और इज्जत मिलती है, यह देखकर चुना। इसके अलावा इलाज के लिए साधन हमारे जमाने में नहीं थे तो हमें लगा कि क्यों ना डॉक्टर बनकर गरीबों को इलाज दें इसलिए इसे चुना।

आपके समय में कितने कॉलेज हुआ करते थे? सीटें कितनी थीं और क्या स्थिति थी?
उत्तर – हमने 1956 में एमबीबीएस की डिग्री ली। उस समय छत्तीसगढ़ में तो एक भी मेडिकल कॉलेज नहीं था लेकिन मध्यप्रदेश के ग्वालियर और इंदौर में दो कॉलेज थे। वहां 50 सीट थी। वहां प्रतिमाह की फीस 12 रूपए (10 रूपए मासिक और 2रूपए खेल फीस) लिए जाते थे। प्रतिस्पर्धा नहीं थी और अच्छी पढ़ाई होती थी। लेकिन आज वह देखने को नहीं मिल रहा है।

क्या आप मानते हैं कि आज इस पेशे में बाजारवाद हावी है और उस दौर में क्या स्थिति थी? आपने उनका कैसे सामना किया?
उत्तर – हां, आज बाजारवाद इस पेशे में हावी है, मैं इससे सहमत हूं। मेरे समय में ऎसा नहीं था, क्योंकि समाज के हर व्यक्ति से डॉक्टर को मदद मिलती थी। सचमुच में भगवान ही समझा जाता था। लेकिन आज भौतिकतावादी जरूरतें और अपने पेशे को पीढ़ी दर पीढ़ी चलाने के लिए मेडिकल की पढ़ाई में परेशानी यानी मेडिकल कॉलेजों का कम होना और बाहर कॉलेजों में ज्यादा डोनेशन भी एक वजह है। मेडिकल कॉलेज की कर्मी है, जिसकी वजह से एमबीबीएस के लिए 50 लाख और एमडी, एमएस के लिए डेढ़ करोड़ रूपए तक खर्च करने पड़ रहे हैं। ऎसे में डॉक्टरों पर बाजारवाद हावी होना मजबूरी सी बन गई है।

बाजारवाद के लिए क्या सीख देंगे?
उत्तर – बाजारवाद भी सरकार की देन है। यदि सरकार चाहे तो इसे दूर कर सकती है। मेडिकल कॉलेज खोलकर, चिकित्सकीय पढ़ाई मुहैय्या कराकर। इससे निश्चित तौर पर बाजारवाद नहीं पनपेगा और पेशे की समस्या भी दूर होगी। क्योंकि जरूरत की वजह से ही कुछ डॉक्टरों में ये हावी हो जाता है।

डॉक्टर भगवान नहीं बल्कि हैवान के रूप में देखा जा रहा है? उसकी छवि खराब हो गई है? इसे किस रूप में देखते हैं और क्या कारण मानते हैं?
उत्तर – पहले डॉक्टर और समाज के बीच आपसी सामंजस्य था। डॉक्टर इलाज करता था तो समाज भी उनका खयाल रखता था। लेकिन आज इलाज के समय डॉक्टर भगवान होता है और इलाज के बाद वह हैवान हो जाता है। लेकिन इन सबके पीछे सरकार की ही जिम्मेदारी है। यदि सरकारी व्यवस्था को दुरूस्त बनाए और सुविधा संसाधन दें तो हैवानियत की स्थिति नहीं होगी।

इन हालात से उबरने का कोई सुझाव?

उत्तर – इससे उबरना सरकार के हाथों में है। सरकार, समाज और चिकित्सक एक साथ बैठकर समय-समय पर मंथन करें तो निश्चित तौर पर समस्या से उबरा जा सकता है।

नई पीढ़ी को क्या सीख देना चाहते हैं?
उत्तर – सेवा का भाव रखें, खुद की जिम्मेदारी समझें,, मेहनत करें, पेशे के प्रति गंभीरता रखें तथा धैर्य से काम लें।

डॉक्टर बनने के पहले क्या सोच थी और डॉक्टर बनकर क्या पाया?

उत्तर – डॉक्टर बनने के पहले और बाद में मेरी सोच में कोई बदलाव नहीं आया। बस इतना हुआ कि मेरे नाम के आगे डॉक्टर शब्द लग गया। लेकिन इस शब्द के पीछे कितनी जिम्मेदारी होती है इसका निर्वहन करना चुनौती भरा जरूर था। लेकिन उस समय समाज भी मदद करता था तो कोई परेशानी नहीं हुई।

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