व्यंग्य राही की कलम से
हालांकि हमारी हैसियत इस महान देश में दो कौड़ी की भी नही है। क्योंकि घरवालो की तो छोड़ो आजकल हमारी बात गली का कुत्ता तक नहीं मानता। बावजूद इसके हमारा मन करता है कि हम एक बार राष्ट्र के नाम सम्बोधन करें। सरकार चाहे या न चाहे परन्तु संविधान हमें अधिकार देता है, सो इस ऐतिहासिक संबोधन का शीर्षक है- सत्य को तिलांजलि। हालांकि हमेशा की तरह हम ‘कन्फ्यूज’ हैं कि सत्य को ‘तिलांजलि’ दी जाए या ‘श्रद्धांजलि’। लेकिन सोचने पर पाते हैं कि ‘श्रद्धांजलि’ एक भारी शब्द है जिसका प्रयोग आजकल ‘नेताओं’ या ‘रॉबिनहुड’ टाइप लोगों की मौत पर ही किया जाने लगा है।
हालांकि हमने प्राय: देखा कि ऐसी श्रद्धांजलि सभाओं में लोगों के मुंह से जो आदरयुक्त शब्द झरते हैं सुनने वालों के दिलों में एकदम विपरीत प्रतिक्रिया होती है। मंच से कहा जाता है कि मरने वाले सज्जन और चरित्रवान व्यक्ति थे तो सुनने वालों के मन में ‘दुर्जन’ और ‘चरित्रहीन’ शब्द प्रतिध्वनित होते हैं। इसलिए हमें ‘तिलांजलि’ शब्द ठीक लगा।
‘तिलांजलि’ मृतकों को दी जाती है। मान लीजिए किसी का बाप मर गया तो उसका तर्पण ‘तिलांजलि’ द्वारा किया जाता है। हमें लगता है कि ‘सत्य’ भी मर चुका है। और मरा ही नहीं वरन् उसका सामूहिक कत्ल किया गया है। हालांकि कुछ सिरफिरे ज्ञानियों ने कहा है कि सत्य अमर है और वह कभी नहीं मरता। सत्य फिनिक्स पक्षी की तरह है जो अपनी ही राख से दोबारा जन्म ले लेता है। लेकिन कुछ समय के लिए ही सही, ‘सत्य’ को मारपीट कर दफनाया तो जा सकता है।
जब दफनाने की क्रिया सम्पन्न कर ही डाली तो फिर तिलांजलि देने में हमारे बाप का क्या जाता है। तो मेरे देश के भाई-बहनों। हम आज यहां सत्य की तिलांजलि सभा में इक_ा हुए हैं। यह पुनीत कार्य आपके सहयोग के बगैर संभव नही है। यूं चाहे हम परस्पर लड़-झगड़ मरते हैं पर सत्य को ‘तिलांजलिÓ देने में एक रहेंगे।
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