संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने आतंकवाद के खिलाफ एक और प्रस्ताव पास कर दिया। पिछले सोलह वर्षों में यह 14वां मौका है जब सुरक्षा परिषद ने ऐसा प्रस्ताव पारित किया है। तब प्रश्न उठता है कि इन प्रस्तावों की क्या तो प्रासंगिकता है और क्या उनकी उपयोगिता है? क्या संयुक्त राष्ट्र यूं ही आतंकवाद से लडऩे के हवाई प्रस्ताव पारित करता रहेगा और उन प्रस्तावों की धुआं उड़ाने वाले यूं ही उसका धुआं उड़ाते रहेंगे?
यदि हम संयुक्त राष्ट्र का पिछले 70 वर्षों का इतिहास उठा कर देखें तो विश्व में शांति सद्भाव और भाईचारा बनाने के किसी प्रयास में वह कभी कामयाब नहीं रहा। फिर चाहे वह इजरायल-फलस्तीन मोर्चा हो या फिर ईरान-इराक अथवा दोनों कोरियाओं की लड़ाई। नतीजा चाहे जो हो पर उसने वही किया जो अमरीका ने चाहा। तब फिर उसमें और अमरीका में फर्क क्या है? और जब फर्क नहीं है तब फिर उसकी कामयाबी तो सवालिया घेरे में रहेगी ही।
आतंकवाद की बात करें तो पिछले तीन दशकों में भारत ने आतंकवाद को सबसे ज्यादा भोगा है। जम्मू-कश्मीर और पंजाब के साथ-साथ मुम्बई, हैदराबाद, चेन्नई, जयपुर, अजमेर, मेरठ जैसे अनेक शहरों में होटल और रेल-बस से लेकर मंदिरों तक पर सैकड़ों… नहीं हजारों बेगुनाहों ने अपनी जान इस आतंकवाद की खातिर गंवाई है।
सवाल यह है कि तब संयुक्त राष्ट्र और उसकी सुरक्षा परिषद कहां थी? जब ओसामा बिन लादेन अमरीका के लिए खतरा बने तब वह उसे पाकिस्तान में घुसकर मार डालो? लेकिन जब दाऊद या हाफिज जैसे सिरफिरे भारत में सैकड़ों लोगों की जान लें तब उन्हें पकड़वाने में भी सहयोग मत करो। ‘पांच बड़ों’ में से किसी एक पर भी आंच आए तो दुनिया सिर पर उठा लो, अन्य कोई देश पूरा बर्बाद भी हो जाए तो उसकी चिंता मत करो।
संयुक्त राष्ट्र ने कभी सोचा कि आईएस क्यों बना? यदि वह तभी अमरीका पर कार्रवाई करता जब वह इराक को तहस-नहस कर रहा था तो यह नौबत ही नहीं आती। आईएसआईएस को आज भी तहस-नहस किया ही जाना चाहिए लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद को यह भी सोचना चाहिए कि वह जब तक अमरीका का पिछलग्गू रहेगा तब वह दुनिया का कोई भला नहीं कर पाएगा। उसे सबके बारे में सोचना होगा और इसके लिए इन बड़ों के जाल से बाहर आना होगा। संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की कवायद लम्बे समय से कागजो में है।
यह सही समय है जब उसे अपने स्वरूप और कार्यप्रणाली की नये सिरे से समीक्षा करनी चाहिए। इस बात में कहीं कोई शक नहीं है कि दुनिया के तमाम देश जिस आपसी असहिष्णुता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, उसमें संयुक्त राष्ट्र या उस जैसी संस्था की बहुत बड़ी जरूरत है लेकिन वह ताकतवर होनी चाहिए।
वह किसी की पिछलग्गू नहीं होनी चाहिए। उसकी आवाज और नजरों में ही इतना दम होना चाहिए कि जिधर देख ले उसकी घिग्घी बंध जाए लेकिन यह होगा तब जब वह निष्पक्ष, निर्भीक और निडर होकर काम करेगी। अन्यथा तो वह शांति सेनाएं भेजती रहेगी और आतंकी अपना काम करते रहेंगे।