भीतर हंगामा और बाहर बेतुके बयान। राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर हवा में बातें करने का आरोप लगाकर उनकी विश्वसनीयता घटने के ताने कस रहे हैं तो संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू कांग्रेस के 44 सीटों पर पहुंचने का ताना दे अपनी कमीज उजली दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
कांग्रेस ने संसद न चलने देने की ठान ली है तो सत्तारूढ़ दल विपक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं लगता। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के खेल में नुकसान हो रहा है देश को। कांग्रेस भाजपा के भ्रष्टाचार को मुद्दा बना रही है तो भाजपा कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों- वीरभद्र सिंह और हरीश रावत को लपेटने की कोशिश में है।
अपने भ्रष्टाचार पर सब मौन हंै लेकिन सामने वाले पर कीचड़ उछालने को नए खुलासे हो रहे हैं। शिष्टाचार की मर्यादा रोज धराशायी हो रही है लेकिन दुख की बात तो ये है कि इस गतिरोध को समाप्त करने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। न पक्ष में, न विपक्ष में।
राजनीतिक टकराव का दौर ये देश आजादी के बाद से ही देखता आयाा है लेकिन उस दौर का टकराव नीतियों को लेकर था न कि भ्रष्टाचार को लेकर। टकराव होता भी था तो बाहर।
संसद काम करती रहती थी। नोक-झोंक भी होती थी लेकिन बाहर पक्ष-प्रतिपक्ष के नेता सहज भाव से मिलते थे। आज की राजनीति ने राजनेताओं को मानो एक-दूसरे का विरोधी नहीं, दुश्मन बना दिया हो। वे आपस में व्यवहार भी शत्रु जैसा करने लगे हैं।
चैनलों पर गर्मागर्म चर्चा के दौरान हाथापाई के सिवाय सब कुछ हो जाता है। भीतर और बाहर लड़ने वाले ये वही राजनेता हैं जो भाईचारे और मिल-जुलकर चलने की सलाह देते नहीं थकते। संसद की कार्यवाही देखने वाला व्यक्ति इन राजनेताओं से आखिर क्या प्रेरणा ले? युवा इनकी किस बात का अनुसरण करे, समझ में नहीं आता।
देश ऎसे कैसे महान बन सकता है, कैसे विकसित देशों की कतार में शुमार हो सकता है? हम दावा तो महान लोकतांत्रिक देश होने का करते हैं लेकिन नेताओं के आचार-विचार में लोकतंत्र की झलक कहीं दिखाई नहीं पड़ती। गतिरोध टूटने की उम्मीद भी कहीं नजर नहीं आ रही।
तीन दिन से चल रहा टकराव किस मोड़ पर पहुंचेगा, कहा नहीं जा सकता। लोकसभाध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति की तरफ से भी माहौल सामान्य बनाने के प्रयास नहीं हो रहे। लगता है कि राजनीतिक ड्रामा लम्बा चलेगा।