हमारे यहां की परम्परा तो यही बन गई है कि विपक्षी दल का नेता पानी पी-पीकर सरकार को कोसता ही रहे। जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद मनमोहन सिंह देश के ऎसे पहले प्रधानमंत्री रहे हैं जिन्होंने दस साल तक देश का नेतृत्व किया।
सरकार चलाने का उनके पास अनुभव है और यदि वे प्रधानमंत्री से मिलने जाते हैं तो इसकी तारीफ की जानी चाहिए।
हम अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाने में गौरव भले महसूस करते हों लेकिन क्या सबसे अधिक मतदाता होने के कारण ही हम सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश मान लिए जाएं? जिस देश में प्रधानमंत्री की पूर्व प्रधानमंत्रियों अथवा प्रमुख विपक्षी नेताओं से मुलाकात राष्ट्रपति भवन अथवा राजघाट पर ही होती हो, वह सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कैसे हो सकता है? मोदी सरकार के एक साल पूरा करने पर दिन में मनमोहन सिंह का सरकार पर हमला बोलना और शाम को मोदी से मिलना लोकतंत्र में हमारा कद जरूर बढ़ा सकता है।
मोदी और मनमोहन ही क्यों, मोदी और सोनिया-राहुल, मुलायम, लालू, मायावती, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार अथवा जयललिता की नियमित मुलाकातें क्यों नहीं हो सकती? एक-दूसरे को मिलने से रोका किसने है? ऎसी अनौपचारिक मुलाकातें संकुचित मानसिकता वाले राजनीतिक दौर से उबरने में मददगार हो सकती हैं। दुनिया के हर बड़े लोकतांत्रिक देशों में सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच औपचारिक-अनौपचारिक मुलाकातें सामान्य प्रक्रिया है।
ऎसी मेल-मुलाकातों से न सिर्फ पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच सम्बंधों में शिष्टाचार बना रहता है बल्कि शासन चलाने में भी मदद मिलती है। मोदी सरकार ने अभी एक साल पूरा किया है और चार साल बाकी हैं।
आने वाले चार सालों में सत्ता पक्ष और विपक्ष यदि मिलकर काम करें तो देश का भला हो सकता है। मिलकर काम करने का मतलब ये नहीं है कि विपक्ष अपना धर्म भूल जाए। विपक्ष का कर्तव्य है संसद से लेकर सड़क तक सरकार को घेरना।
लेकिन सिर्फ टकराव के लिए टकराव से किसी को फायदा नहीं होने वाला। स्थापित परम्पराओं का निर्वहन भी किया जाना चाहिए और ऎसी नई परम्परा भी डाली जाए जैसा मनमोहन सिंह ने प्रयास किया। राजनीति में रहकर राजनीति तो की जाए लेकिन हर मामले को राजनीतिक तराजू से नहीं तौला जाए।