अंधे पीसें-कुत्ते खाएं’, वाली कहावत कहीं और चरितार्थ होती हो या नहीं लेकिन देशभर में सरकार की तरफ से वर्षा जल पुनर्भरण के नाम पर खर्च किए जा रहे करोड़ों-अरबों रुपए की योजनाओं पर जरूर सटीक बैठती है। ‘जल है तो कल है’सरीखे तमाम नारों को कारगर साबित करने के लिए सरकारें वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का निर्माण कराती हैं। सरकारी कार्यक्रमों में इनका बढ़-चढ़कर बखान तो किया जाता ही है, निजी क्षेत्र से भी ऐसे सिस्टम बनाने की गुजारिश की जाती है।
सालों-साल से यही सिलसिला चलता आ रहा है। बिना ये जांचे-पड़ताले कि वर्षा जल बचाने के नाम पर जनता के करोड़ों-अरबों रुपयों का इस्तेमाल हो भी रहा है या नहीं? वर्षा जल पुनर्भरण स्ट्रक्चर बनने के बाद काम कर भी रहे हैं या फिर सजावटी तौर पर इधर-उधर बिखरे पड़े हैं? जयपुर में पत्रिका की पड़ताल से उजागर हुआ कि अधिकांश स्ट्रक्चर शो-पीस बने हैं। शहर में पिछले सालों में बने लगभग 250 स्ट्रक्चर बदहाल पड़े हैं।
करोड़ों रुपए खर्च हो गए, वाहवाही भी लूट ली गई लेकिन इनका उपयोग हो ही नहीं पा रहा। महकमों के अधिकारियों तक को पता नहीं कि कितने स्ट्रक्चर बने और कितने काम चालू हैं। ये हाल अकेले गुलाबी शहर या राजस्थान का ही बल्कि देशभर का है। जगह-जगह की खबरों से इनकी बदहाली की तस्वीर सामने आती है।
जलदाय महकमे से जुड़े मंत्री और अधिकारियों को तो पेयजल परियोजनाओं में होने वाले अरबों-खरबों के खेल से ही फुर्सत नहीं। मंत्री-अधिकारियों के बड़े-बड़े दावों के विपरीत पाताल में जाते पानी की हकीकत छिपी नहीं है। देश के कितने ही क्षेत्रों का डार्क जोन में आना ये बताता है कि पानी खर्च करना सब जानते हैं लेकिन उसे बचाने की चिंता किसी को नहीं है। न उन अधिकारी-कर्मचारियों को, जिनको वेतन ही पानी बचाने के लिए मिलता है और न जनता को। अंधाधुंध कुएं और हैंडपम्पों से पानी का दोहन जिस तरीके से हो रहा है, वह भविष्य के लिए चिंता का विषय है। लेकिन इस चिंता का समाधान करने वालों को इसकी कोई चिंता नजर नहीं आती।