scriptजरूरत हमें और धन उन्हें! | We need money to them! | Patrika News

जरूरत हमें और धन उन्हें!

Published: May 21, 2015 10:00:00 pm

मोदी की विदेश नीति में स्पष्टता नहीं है। वे जरा बताएं कि भारत की संयुक्त
राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य की पैरवी के लिए मंगोलिया कितना वोट
जुटा सकता है?

modi

modi

प्राकृतिक आपदा से जूझ रहे देश के अनेक राज्य आर्थिक सहायता के लिए केंद्र सरकार का मुंह ताकते रहते हैं और ऎसे में भारत अन्य देशों को भारी-भरकम आर्थिक सहायता उपलब्ध कराता है तो यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि क्या हमारी जरूरत अन्य देशों के मुकाबले कुछ भी नहीं है? विकसित देशों के आगे झोली फैलाने वाले हम, क्या आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो गए हैं कि अन्य देशों की आर्थिक सहायता कर सकें? पढिए इन्हीं विषयों पर जानकारों की राय आज के स्पॉटलाइट में..

यात्रा व आर्थिक मदद
भूटान, 16-17 जून 2014
11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए 45 अरब व आर्थिक प्रोत्साहन योजना के लिए 5 अरब रूपए की सहायता।
नेपाल, 3-4 अगस्त 2014
एक अरब डॉलर की सहायता।
सेशेल्स, 10-11 मार्च 2015
7.5 करोड़ डॉलर की सहायता राशि।
मॉरिशस, 11-13 मार्च 2015
विभिन्न परियोजनाओं के लिए मॉरीशस को 50 करोड़ डॉलर का रियायती ऋण।
श्रीलंका, 13-14 मार्च 2015
रेलवे के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए 31.8 करोड़ डॉलर की मदद।
मंगोलिया, 16-17 मई 2015
एक अरब डॉलर की सहायता राशि।


प्रो. कमल मित्र चिनॉय जेएनयू, नई दिल्ली
नरेंद्र मोदी द्वारा मंगोलिया जैसे छोटे-से देश को एक अरब डॉलर की मदद देना समझ से परे है। यह विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कहा जा सकता। मंगोलिया को इतनी बड़ी मदद देकर उन्होंने दिखावा किया है कि भारत कितना पैसे वाला देश हो गया है। पर मोदी देश की असलियत की ओर भी झांकें। अमत्र्य सेन के आंकड़ों के मुताबिक देश में करीब 69 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे हैं। अगर जिस देश की आबादी दो तिहाई भूखी मर रही है और ऊपर से किसान आत्महत्या पर ऊतारू हैं ऎसे में किसी देश में एक अरब डॉलर की राशि देने के निर्णय पर सवालिया निशाना लगाता है।

चीन में मोदी गए, वहां भी यह खुलासा नहीं हुआ कि चीनी कम्पनियों से जो समझौते हुए हैं, उसके तहत चीनी तकनीक भारत आएगी? “मेक इन इंडिया” का नारा मोदी ने दिया पर जब तक विदेशी कम्पनियों की तकनीक भारत नहीं आएगी तो हमें फायदा नहीं होने वाला। सिर्फ भारत में एसेम्बलिंग होने से काम नहीं चलने वाला क्योंकि इससे हमारी कम्पनियों को नहीं पता लग पाएगा कि उनका सस्ता उत्पादन कैसे किया जा सकता है? मंगोलिया को इतनी भारी राशि देने की बजाय हमें अपने संसाधनों के जरिए उनकी जरूरतें पूरी करनी चाहिए। भले ही वह रेलवे में हो, इंफ्रास्ट्रक्चर में हो या अन्य विकास कार्य।

देश में मरते किसान

अंतरराष्ट्रीय तौर पर जो घटित हो रहा है और हमसे सम्बंध रखने वाले देश किस ओर जा रहे हैं, मोदी उस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। उनकी विदेश नीति में स्पष्टता और समझ नहीं दिख रही है। जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया जबकि चीन जाकर अंग्रेजी में भाषण दिया। एक और बात। भले ही वे एक अरब डॉलर देना चाहते हैं पर यह भी सोचा जाना चाहिए कि पल-पल मरते किसानों का क्या हश््र कर रहे हैं। उनकी भूमि अधिग्रहण की नीति पूरी तरह से किसान विरोधी है। किसान की खेती तो छीनी ही जा रही है, आगे उसकी गुजर-बसर का भी कोई इंतजाम नहीं है।

हाल ही में कई राज्यों में फसलें बर्बाद हुई है, उसके मुआवजा हास्यास्पद है। अगर गांवों में जमीने छीन ली जाएंगी तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का क्या होगा? नरेगा की उन्होंने जमकर आलोचना की पर उसे दुरूस्त करने के लिए कुछ नहीं किया। जो पैसा बजट में आवंटित हुआ वह भी नहीं पहुंचा है। किसानों के पास आमदनी बढ़ती। अगर आमद बढ़ती तो उनकी खर्च करने की क्षमता बढ़ती और वह पैसा बाजार में आता। दरअसल, देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए सभी सेक्टर्स को एक सांचे में जोड़ना पड़ता है। ऎसा अभी देखने को नहीं मिल रहा है।

यहां लगाते पैसा

एक संगठन है ब्रिक्स। इसमें ब्राजील, रूस, भारत, दक्षिण अफ्रीका और चीन है। इस वक्त ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था की हालत खराब दौर से गुजर रही है। अगर इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को डॉलर दिए जाते तो ब्रिक्स मजबूत होता। इसका भारत को भविष्य में फायदा मिलता। पर मोदी ने मंगोलिया को एक अरब डॉलर की घोषणा कर दी।


मोदी जरा बताएं कि भारत की संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य की पैरवी के लिए मंगोलिया कितना वोट जुटा सकता है? अगर ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश को मजबूत साझीदार बनाया जाता तो हमारे लिए फायदे का सौदा होता। इसलिए मोदी जो सुझाते हैं, वे बहुत बिखरे हुए विचार हैं। उनका कोई एक मॉडल नहीं है। मोदी को नेहरू मॉडल सीखना चाहिए। नेहरू ने किसानों को मजबूत करने पर जोर दिया था। वे समाजवाद की बात जरूर करते थे पर वे साथ-साथ पूंजीवाद को भी बढ़ा रहे थे पर उनकी सोच यह थी कि गरीब तबके का भी भला हो। नेहरू की विदेश नीति से लेकर घरेलू और कृषि नीति एक जंजीर में बंधी हुई दिखाई देती थी।


ऎसे तो आगे नहीं बढ़ पाएंगे
सलमान हैदर, पूर्व विदेश सचिव
मंगोलिया शब्द जहन में आते ही याद आ जाता है ऎसा देश जो रूस से अलग होने के बाद फलने-फूलने को बेताब है। पच्चीस साल ही हुए हैं इस देश को संसदीय लोकतंत्र व्यवस्था को अपनाए हुए। यह वह देश है जहां बौद्ध संप्रदाय के अनुयायियों का बोलबाला रहा लेकिन हालात से मजबूर होकर यह परंपरा और सांस्कृतिक विरासत को खोने लगा था। ऎसे में भारत ने नब्बे के दशक में वहां ऎसा व्यक्ति राजदूत बनाकर भेजा, जो कहने को था विदेशी लेकिन उसे वहां के लोगों ने अपनों से कहीं ज्यादा स्नेह और सम्मान दिया।

कुशक बकुला तो लद्दाख से थे और बौद्ध लामा थे। बौद्ध संप्रदाय की जबर्दस्त गहरी समझ रखने वाले बकुला के मंगोलिया पहुंचने पर वहां के लोगों को लगा कि कोई ऎसा व्यक्ति वहां पहुंचा है जो उनकी युवा पीढ़ी को उनकी पारंपरिक और सांस्कृतिक विरासत को लौटाने में मदद करेगा। उन्होंने भारत के राजदूत होने के साथ मंगोलिया के लोगों को उनकी पुरानी पहचान से परिचित कराया। यह सारी बातें इसलिए ध्यान में लाना आवश्यक है क्योंकि ये बातें ही बतातीं हैं कि हमारे देश से मंगोलिया का जुड़ाव केवल चंद दिनों या कुछ वर्षो का नहीं है। बकुला के मंगोलिया पहुंचने के बाद भारत का जो सम्मान मंगोलिया में है वह शायद ही किसी और देश का वहां पर होगा।

जहां तक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंगोलिया यात्रा का सवाल है तो इसे रणनीतिक तौर पर बहुत ही अच्छा कदम माना जाएगा। मंगोलिया को एक अरब डॉलर की आर्थिक सहायता देने को भी बहुत ही सधा और अच्छा कदम माना जाना चाहिए। उन्होंने मंगोलिया और भारत के ताल्लुकात की कद्र की और उनकी ओर से दिखाया गया दोस्ती का यह जज्बा कायम रखा जाना चाहिए। मंगोलिया के साथ संबंधों के अतिरिक्त उसे एक अरब डॉलर की आर्थिक सहायता का एक दूसरा पहलू यह भी है कि क्या भारत की अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी हो गई हैं, जो वह उदारता के साथ वह आर्थिक सहायता की घोषणा करके आया है। भारत ने केवल मंगोलिया ही नहीं इस समय भूटान, मॉरीशस, श्रीलंका और हाल ही में नेपाल की प्राकृतिक आपदा के समय सहायता भी की।

यह सही है कि हमारे देश की जरूरतें बिल्कुल भी किसी अन्य देश की जरूरत के मुकाबले कम नहीं हुई हैं। विशेष रूप से प्राकृतिक आपदा झेल रहे राज्यों की जरूरत कहीं ज्यादा हो सकती हैं। उन्हें भी भारी-भरकम आर्थिक सहायता की आवश्यकता है। फिर भी कुछ फैसले रणनीतिक होते हैं। ये फैसले हर स्थिति में करने पड़ते ही हैं। जहां तक हमारी माली हालत का सवाल है तो पिछले कुछ वर्षो में भारत ने खासी प्रगति की है और उसकी काबिलियत भी आर्थिक तौर पर सुधरी है। भारत इस काबिल है कि कमजोर मुल्कों को आर्थिक सहायता दे सके, तो उसे यह सहायता देनी चाहिए। यदि हम अपनी जरूरतों को ही देखकर अन्य देशों के साथ रणनीतिक संबंधों का आकलन करेंगे तो शायद हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे।


केवल यही भाषा समझता है चीन

प्रो. अमिताभ मट्टू, जेएनयू
दक्षिण एशिया में चीन के साथ भारत एक बड़ा देश है। लेकिन, भौगोलिक रूप से बड़ा होने से कुछ नहीं होता। हमें आर्थिक रूप से और सैन्य दृष्टि से भी बड़ा देश होना चाहिए। हम चाहते हैं कि हम बड़े देश हैं तो हमारे पड़ोसी देश हमें अपना बड़ा भाई समझें पर सबसे बड़ी परेशानी ही हमारी यह रही है कि हम बड़े भाई की भूमिका में कभी रह नहीं पाए। यह सही है कि हमारी परेशानी आर्थिक रही हों या राजनीतिक रही हों लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपके प्रदर्शन के मामले में ये सब मायने नहीं रखता। यदि आप कमजोर पड़ते हैं तो अन्य मुल्क इसका फायदा उठाने लगते हैं।

तो दरवाजे पर होगा चीन
जरा निगाह उठा कर देखिए तो सही कि हमारे पड़ोसी देशों के साथ हमारे संबंध कैसे रहे हैं? हम दक्षिण एशियाई अपने देशों की मदद के लिए कितनी बार खड़े रह पाए? स्पष्ट हो जाएगा कि हम पड़ोसियों के साथ तनावपूर्ण संबंधों के बीच जीते रहे हैं। हमारी नीतियां कभी भी ऎसी नहीं रहीं कि हम पड़ोसी देशों के साथ बड़े भाई की भूमिका निभा पाएं। दूसरी ओर, चीन ने क्या किया? यह तनाव क्यों है कि चीन हमारे पड़ोसी देशों के सहारे हमें घेरने की कोशिश में है? उसका प्रभुत्व न केवल उसके बल्कि हमारे पड़ोसी देशों में भी बढ़ता ही जा रहा है।

पाकिस्तान में वह 46 अरब डॉलर के निवेश के साथ इकोनॉमिक कॉरिडोर बना रहा है और उसके जरिए भारत पर निगरानी रखने की कोशिश में है। महिंद्रा राजपक्षे के कार्यकाल के समय भी वह श्रीलंका को नौसेना के जरिए मदद भेजने में लगा था। नेपाल में भी सहायता दे रहा है। स्थिति यह हो गई है कि भारत ने अपने रूख में बदलाव करते हुए कार्यशैली को ना बदला तो अगले पांच से दस साल में चीन हमारे दरवाजे पर दिखाई देने वाला है।

अब कोई विकल्प नहीं
सभी जानते हैं कि हमारे अपने देश की माली हालत ठीक नहीं है और हमें ही अपने देश में प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ता है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र या फिर अन्य कोई भी राज्य की जरूरतें कुछ कम हों ऎसा तो बिल्कुल भी नहीं हैं। ये राज्य प्राकृतिक आपदाओं से जूझते रहे हैं और इस बात से कोई भी इनकार नही करेगा कि इन राज्यों को बड़ी आर्थिक राहत की आवश्यकता है।

इसके बावजूद भारत के पास कोई विकल्प भी शेष नहीं रह गया है कि घरेलू परिस्थितियों से जूझते हुए, पड़ोसी मुल्कों के साथ भी बड़े भाई के रिश्ते बनाए। इसके लिए यदि पड़ोसी मुल्कों पर कुछ धन खर्च भी करना पड़े तो भी विशेष परेशानी का विषय नहीं है। देश को अपने विकास के साथ सीमाओं की सुरक्षा पर ध्यान देने के लिए यह भी करना पड़ेगा। अन्य देशों के सामने यह दिखाना होगा कि भारत भी किसी से कम नहीं है वरना घरेलू उलझनों में ही उलझ कर रह गए तो सीमा पर कोई चीन दिखाई देने वाला है। तब ना तो घरेलू समस्या सुलझा पाएंगे और न सीमा की समस्या ही।

संप्रभुता से समझौता नहीं
बात करें यदि मंगोलिया जाकर प्रधानमंत्री के एक अरब डॉलर की आर्थिक सहायता देने की, तो इसके जरिए भारत ने चीन को संदेश भेजा है कि यदि वह भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान के जरिए भारत पर निगरानी करना चाहता है, श्रीलंका के जरिए भारत को आंख दिखाना चाहता है तो हम भी कम नहीं है। यह रणनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए उठाया गया कदम है। मंगोलिया जाकर उसे आर्थिक सहायता देने के मायने यही हैं कि यदि चीन हमारे पड़ोसी मुल्क में घुसेगा तो हमें भी उसके पड़ोसी मुल्क में घुसना आता है।

वह उस देश में जिसके भारत के साथ सदियों पुराने संबंध रहे हैं। बौद्ध संप्रदाय भारत के रास्ते ही मंगोलिया पहुंचा और वहां पनपा था। भारत ने इसके जरिये बीजिंग को स्पष्ट संदेश दिया है कि भारत अपनी संप्रभुता के साथ कोई समझौता नहीं करेगा। जो चाल चीन चल सकता है, उसका जवाब देना भारत को भी आता है।

ट्रेंडिंग वीडियो