घटना एक: राजमार्ग पर दुर्भाग्य से एक ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो
गया। बेचारा ड्राइवर और खलासी जख्मी हो गए। ट्रक में दाल-चावल भरे थे। पास की बस्ती
वालों को पता चला तो झुण्ड के झुण्ड आ गए।
बेचारे ड्राइवर-खलासी
चिल्लाते रहे और बस्ती वाले दाल-चावल लूटने में लगे रहे। घटना दो: सरसों के तेल से
भरा एक टैंकर पलट गया। तेल बहने लगा। आस-पास वाले अपने घरों से मटके और बाल्टी लेकर
आए और उनमें तेल भर कर घर ले गए। मानो इसी के सहारे उनकी जिन्दगी पूरी होगी। घटना
तीन: पेट्रोल से लबालब एक टैंकर की टक्कर हुई। पेट्रोल बह कर गड्ढों में जमा होने
लगा।
लोगों ने बाल्टियों में भरना शुरू कर दिया। लूट मच गई। अचानक एक
बूढ़े को बीड़ी की तलब लगी। उसने माचिस सुलगाई। विस्फोट हो गया। दर्जनों लोग झुलस
गए। कई जल कर मर गए। घटना चार: ट्रेन दुर्घटना में चीत्कार मचा। बचाने वाले कम थे,
लूटने वाले ज्यादा। क्षमा करें। यह सारे किस्से अपने देश के हैं।
फर्क
इतना है कि यहां लुटेरी जनता है। वह जनता जिसे हम बेचारी कह कर ढाढस बंधााते रहते
हैं। जिस देश की जनता ही ऎसी हो उसे किस माजने के नेता मिलेंगे। जैसे पुजारी वैसे
ही भगवान भी बन जाते हैं। कहते हैं कि जिस मंदिर का पुजारी सज्जन होता है उस मंदिर
में भक्तों की संख्या भी ज्यादा होती है।
यहां तो पूरी बस्ती ही लूट
में मगन है। जब नेता लूटते हैं तो हम सब “हाय-हाय” करने लगते हैं। लेकिन जब आदमी का
बस चलता है तो वह लूट में पीछे नहीं रहता। भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है। भीड़
सोचती है कि जब सब लूटने में लगे हैं तो हम क्यों पीछे रहे। जब सब गंगामैया में
गंदगी फेंक रहे हैं तो मेरे न फेंकने से क्या वह शुद्ध हो जाएगी। यही खेल सारा खेला
खराब कर देता है।
एक शिक्षक से हमने कहा आजकल के अध्यापक मनमौजी कैसे
होते जा रहे हैं? वे उबल पड़े। बोले- आपको हम ही दिखलाई देते हैं। जब सारा तंत्र
भ्रष्ट है तो आप सिर्फ शिक्षक से कैसे उम्मीद करेंगे कि वह ईमानदार बना रहे। हमारे
भी बाल-बच्चे हैं।
यही बात हमने एक कलमनवीस से कही। वे बोले- समाज को
सुधारने का ठेका हमारे ही पास है क्या? नेताओं को देखो। नेता से पूछो तो कहेगा कि
अगर पूरी ईमानदारी से काम करें तो हमारी नेतागिरी चल ही नहीं सकती। यानी सब अपने
कारनामों को “जस्टीफाई” करने में जुटे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार ऊपर से
शुरू होकर नीचे आता है।
कुछ कहते हैं कि जब सब कुछ भ्रष्ट है तो ऊपर
वाले भी ईमानदार कैसे रह सकते हैं? अजी जब सभी “शातिर” हैं तो फिर काहे की हायतोबा।
चलने दो जो चल रहा है।
दिलचस्प बात यह कि जो लोग खुद शीशे के घरों में
रह रहे हैं, दूसरों पर पत्थर फेंक रहे हैं। ऎसा लगता है लूट के दरिया में सभी गोते
लगा रहे हैं। बेचारा ईमानदार इसलिए पानी में नहीं उतर रहा कि कोई उसके कपड़े न उठा
ले जाए और वह नंगा होना नहीं चाहता। – राही