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क्या सही है संसदीय कामकाज न होने देना?

Published: Dec 09, 2016 10:12:00 pm

नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष ने संसद ठप कर रखी है। यह पहला मौका नहीं,
जबकि विपक्ष  संसदीय कामकाज नहीं होने दे रहा हो। आज जो नेता सरकार में हैं
और विपक्ष को उसका दायित्व याद दिला रहे हैं, वे भी पूर्व में विरोध का
यही तरीका

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नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष ने संसद ठप कर रखी है। यह पहला मौका नहीं, जबकि विपक्ष संसदीय कामकाज नहीं होने दे रहा हो। आज जो नेता सरकार में हैं और विपक्ष को उसका दायित्व याद दिला रहे हैं, वे भी पूर्व में विरोध का यही तरीका अपनाते रहे हैं। यही नहीं, विपक्षी दलों के नेता जो पूर्व में सरकार में थे, वे भी संसद ठप होने पर वही तर्क और भाषा इस्तेमाल करते थे, जो सत्ता पक्ष कर रहा है। कितना सही है संसदीय लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के लिए सांसदों का संसद का कामकाज रोकने का तरीका? इसी पर बड़ी बहस…


ठीक नहीं है संसद ठप करके विरोध प्रदर्शन (सोमनाथ चटर्जी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष)
देश की संसद का उपयोग सकारात्मक बहस के लिए ही होना चाहिए। कानून बनाने के लिए होना चाहिए। लेकिन, इन दिनों अधिकतर समय संसद की कार्यवाही ठप करने में बीत जाता है। एक वक्त था जबकि विपक्ष किसी मुद्दे पर बहस कराने के लिए जिद करता था और सरकार से बात मनवाने के लिए अपनी बात पर अड़ा रहता था। और, इसके लिए संसद को ठप कर देता था। संसद को ठप करने का अर्थ होता था, मीडिया में उसके विरोध प्रदर्शन को स्थान मिलना।

विपक्ष संसद ठप करके मीडिया के जरिए अपनी बात को आम लोगों तक सरलता से पहुंचा दिया करता था। लेकिन, अब तो देखने में यह आ रहा है कि जैसे संसद में बहस को लेकर सांसदों की रुचि ही न हो। यह हाल लोकसभा और राज्यसभा दोनों का ही है। बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी का कहना बिल्कुल सही है कि सरकार, स्पीकर और विपक्षी संसद को चलाना ही नहीं चाहते हैं। सांसदों का काम है कि वे जनता की परेशानियों के मुद्दों को संसद में उठाएं लेकिन ऐसा लग रहा है कि देश के सांसदों की रुचि इस काम में नहीं है। केवल लालकृष्ण आडवाणी और मुझे ही ऐसा लगता हो, ऐसा नहीं है। देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जिन्हें सांसद के तौर पर काम करने का लंबा अनुभव भी है, उन्हें भी ऐसा ही लगता है।

उन्होंने भी संसद के दोनों सदनों में कामकाज न होने को लेकर स्पष्ट रूप से आगाह कर करते हुए कहा, इस तरह कामकाज को ठप करना सहन नहीं किया जा सकता है। उन्होंने सांसदों से संसद को चलाने का आग्रह किया है। लेकिन, ऐसा लगता है कि सांसदों के कान पर जूं नहीं रेंग रही।

मैं भी लोकसभा का अध्यक्ष था, तब भी हंगामा होता था। विपक्ष कामकाज को ठप भी कर देता था। ऐसे में बतौर लोकसभा अध्यक्ष, मैं सरकार के और विपक्ष के नेताओं को साथ बिठाकर, अलग से बातचीत करता था और समाधान निकालकर संसद के काम को प्राथमिकता से करने को कहते थे। हमारे ये प्रयास बेकार नहीं जाते थे। अब भी लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का दायित्व है कि दोनों पक्षों को बुलाकर संसदीय कामकाज को पटरी पर लाने का प्रयास करें। मैं तो इस बात का भी पक्षधर हूं कि जो सांसद संसद में कामकाज न करें, उनका वेतन और भत्ते रोक दिया जाए।

इसका अर्थ है कि हम सांसदों के मामले में भी ‘काम नहीं तो दाम नहीं’ की नीति पर चलें। इसका काफी हद तक असर भी होगा। इस आशय का सुझाव मैं लोकसभा अध्यक्ष के तौर पर रहते हुए दे चुका हूं लेकिन दुर्भाग्य से सरकार इस मामले पर सहमत नहीं हुई। विपक्ष को समझना चाहिए कि विरोध करना उसका अधिकार है लेकिन संसद के कामकाज को ठप करके विरोध करने का तरीका किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसे बदलना ही चाहिए।



सत्ता पक्ष की जिद से ही है गतिरोध, बहस शुरू तो करें
(सत्यव्रत चतुर्वेदी वरिष्ठ कांग्रेस नेता)
संसद के दोनों सदनों में जो गतिरोध चल रहा है उसके लिए कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों को जिम्मेदार ठहराया जाना कतई उचित नहीं है। हमने शीतकालीन सत्र की शुरुआत में ही प्रस्ताव देे दिया था कि नोटबंदी को लेकर समूचे देश में जो अफरातफरी का माहौल बन रहा है उस पर चर्चा होनी चाहिए। पहले दिन हमने बहस शुरू भी की। और यह बहस तरीके से चली भी। लेकिन हमारी मांग थी कि नोटबंदी की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद सदन मेें आएं और बहस को सुनें। न केवल बहस को सुनें बल्कि सरकार की तरफ से जवाब भी दें।

प्रधानमंत्री अगले दिन ही नहीं आए। स्वाभाविक रूप से प्रतिपक्ष को आक्रोशित होना था। हम प्रधानमंत्री से यह जानना चाहते हैं कि नोटबंदी के बाद देश में जो माहौल बन रहा है, लोग परेशान हैं, बैंक और एटीएम की कतारों में लोग मर रहे हैं उन सबको लेकर जवाब दें। सरकार इतनी संवेदनहीन हो गई है कि कुछ सुनने को ही तैयार नहीं। रही बात सदन को नहीं चलने देने की। हमारे पास चारा ही क्या थाï हमने विरोध के सारे तरीके अपना लिए।

संसद परिसर में गांधी प्रतिमा के बाहर धरना दिया, सड़कों पर भी उतरे। और ऐसा नहीं है कि केवल कांग्रेस ही नोटबंदी को लेकर सदन में आवाज उठा रही है। कुल सत्रह विपक्षी दल हमारे साथ हैं। सरकार का रवैया देखिए, आठ-दस दिन बाद प्रधानमंत्री सदन में आए और कहा कि वे बहस में भाग लेंगे और जवाब भी देंगे। इस पर बहस शुरू भी हुई पर प्रधानमंत्री एक घंटे बाद ही लौट गए। इसे हठधर्मिता नहीं तो और क्या कहा जाए?

हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री जनसभाओं में आए दिन नोटबंदी को लेकर वक्तव्य दे रहे हैं, नित नए कारण बताते हैं और नियम बदलते हैं लेकिन सदन में अपनी बात कहने से कतरा रहे हैं। हद तो तब हो गई जब आज हमारे नेता राहुल गांधी ने लोकसभा में बोलना शुरू किया तो भाजपा सदस्यों ने उनको बोलने तक नहीं दिया। मेरा कहना है कि भाजपा नेता दोमुंही बातें कहते हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे तो कोयला घोटाले को लेकर सदन के ठप रहने पर कहा था कि सदन में गतिरोध पैदा करना प्रतिपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है।

आज वे ही विपक्ष पर तोहमत लगाते हैं। विपक्ष के सामने अपनी बात कहने का तरीका बहस में हिस्सा लेना ही है। अगर हम बहस से भागना चाहते तो पहले दिन ही इसमें हिस्सा नहीं लेते। मैंने ऐसा अडिय़ल प्रधानमंत्री आज तक नहीं देखा जो बाहर तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और सदन की अनदेखी करना चाहते हैं।

कुछ लोग यह मांग भी उठा रहे हैं कि संसद की कार्यवाही ठप रहने के दौरान सांसदों को वेतन-भत्ते नहीं दिए जाएं। यह खास तौर से विपक्ष के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करना होगा। हमारी तो यही मांग है कि प्रधानमंत्री अपनी जिद छोड़कर स्वस्थ माहौल में सदन में बहस होने दें।

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