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क्या देश में चुनाव होने चाहिए एक साथ?

Published: Dec 02, 2016 10:09:00 pm

हमारे देश में कोई साल ऐसा नहीं जाता जब चुनाव का माहौल नहीं हो। कालेधन के
खिलाफ मुहिम के तहत पहले नोटबंदी और अब लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक
साथ कराने पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है।

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लोकतंत्र के ‘चुनाव तंत्र’ बनने पर लगेगी रोक
(शांताकुमार पूर्व मुख्यमंत्री, हिमाचल प्रदेश)
हमारे देश में हर वर्ष कहीं न कहीं चुनाव होते हैं। धीरे-धीरे लोकतंत्र ‘चुनाव तंत्र’ में बदलता जा रहा है। देश हर समय चुनावी मूड में रहता है और विकास का मूड बहुत कम बन पाता है। चुनाव का खर्च भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है। हम देख रहे हैं कि पार्टियों व उम्मीदवारों का खर्च भी लाखों-करोड़ों में पहुंच रहा है।

यदि चुनाव पांच साल में एक साथ ही हों तो कई लाख- करोड़ रुपए की बचत होगी। भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि आर्थिक विकास तो हुआ, परंतु सामाजिक न्याय नहीं हुआ। देश में 20 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। ऐसे में बार- बार चुनावों से खर्च होने वाले धन को देश की गरीबी मिटाने में इस्तेमाल किया जा सकेगा। बार-बार चुनाव से मुक्ति मिलने से सरकारें विकास पर फोकस कर सकेंगी।

देश में आजादी से 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे लेकिन बाद में कुछ राज्यों में सरकारें जल्दी गिरने के कारण मध्यावधि चुनाव हुए। इससे लोकसभा और विधानसभा के एक साथ होने वाले चुनावों का तंत्र गड़बड़ा गया। केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत और मैंने इस प्रश्न पर अटल जी से कई बार बात की थी।

उन्होंने सभी दलों से बातचीत प्रारंभ भी की, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी। तब एक सुझाव यह भी आया था कि पूरे देश में पंचायतों से लेकर लोकसभा तक के चुनाव पांच साल में निश्चित समय में एक बार हों। कोई स्थान खाली होने पर उप-चुनाव कराने के बजाय दूसरे स्थान पर रहने वाले को विजयी घोषित कर दिया जाए।

दल-बदल कानून को और सख्त बना दिया जाए। विधानसभाओं में अविश्वास मत केवल दो तिहाई बहुमत से पारित हो, यदि कोई प्रदेश सरकार समय से पहले गिर जाए, तो बाकी के समय के लिए उस राज्य में राष्ट्रपति शासन रहे। इस प्रावधान से विधानसभाओं की स्थिरता निश्चित हो जाएगी।

एक साथ चुनाव को लेकर कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की राय अलग हो सकती है क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें राजनीतिक नुकसान हो सकता है। मेरा मानना है कि इस मामलें में राजनीतिक दलों को अपना हित न देखकर इस प्रस्ताव को राष्ट्रीय हित की दृष्टि से लेना चाहिए। राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है।

यह भी जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर आमराय बनाएं। लोकतंत्र में यह सचमुच निर्णायक बदलाव होगा जिसके तहत कम से कम लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराया जाए। यह विचार केवल सुविधा की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सुशासन के जरिये करोड़ों लोगों को बुनियादी सुविधाएं देने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। मेरा मानना है कि ऐसा होने पर चुनावों में धन की बर्बादी एक हद तक रुक पाएगी।


नोटबंदी की आपाधापी की तरह ही होगा इसका हश्र
(मृणाल पाण्डे वरिष्ठ स्तंभकार)
लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने की चर्चाओं के बीच हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संघीय गणराज्य की व्यवस्था दी है जिसमें केन्द्र व राज्यों का समान महत्व होता है। एक साथ चुनाव हुए तो यह बात तय है कि केन्द्र में स्थापित सरकार का ही वर्चस्व चुनाव नतीजोंं में रहने वाला है।

 ऐसे हालात में जब हमारे देश मेें केन्द्र व राज्यों की सरकारेें अलग-अलग दलों की हैं और कई मसलों पर दोनों में मतभेद भी उठते रहे हैं। केन्द्र व राज्य एक-दूसरे पर संतुलन का काम भी करते हैं, विविधता और मतभिन्नता के बीच लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की बात से लोकतंत्र की मूल आत्मा को खत्म करने जैसा होगा।

यह कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराने से खर्चों में बचत होगी लेकिन सवाल यह है कि क्या हम लोकतंत्र की मूल आत्मा को खत्म कर पैसों को महत्व देंगे? दूसरा सवाल यह है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए आदर्श समय कैसे तय होगा? हम जब राज्यों की भौगोलिक स्थिति, संस्कृति और दूसरी बहुलता को देखते हैं तो सब बातों का ध्यान रखना होगा।

कहीं फसलों की कटाई-बुवाई का समय होता है तो कहीं बच्चों की परीक्षाओं का। तीज -त्यौहार व शादी-विवाह के मौके अलग हैं। हमारे शिक्षण संस्थाएं और शिक्षक चुनावी कार्य में इस्तेमाल होते हैं। दरअसल एक साथ चुनाव के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तैयारी करनी पड़ेगी। बिना सोचे समझे कोई फैसला लागू करने का क्या हश्र होता है यह हमने सरकार के नोटबंदी के ताजा फैसले में देखा है। लोगों को अपने ही धन के लिए कतारों में लगने को मजबूर होना पड़ रहा है। जो लोग सत्तर के दशक में एक साथ चुनावों का उदाहरण देते हैं उनको यह समझना चाहिए कि तब के हालात आज जैसे नहीं थे।

तब केन्द्र और राज्यों में कमोबेश एक ही दल की सरकारें थीं। आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी समस्या भी आज जैसी नहीं थी। सवाल यह है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कई चरणों में होने वाले चुनावों में समूचा प्रशासनिक अमला व सुरक्षा बल एक ही चुनाव में जुटा रहता है तो एक साथ चुनाव के लिए सुरक्षा बलों की जरूरत तो और ज्यादा होगी?

इलेक्ट्रानिक मतदान मशीन के साथ दूसरी चुनाव सामग्री की भी जरूरत पडऩे वाली है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आज के दौर में राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत होते जा रहे हैं। अकाली दल, राजद, तेलगुदेशम, शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों का अपने राज्यों में खासा प्रभाव है। इतना ही नहीं इन दलों का क्षेत्रीय जुड़ाव भी है। एक साथ मतदान से मतदाता आसानी से भ्रमित हो सकता है। मेरा मानना है कि एक साथ चुनाव की सोच नोटबंदी जैसे नतीजे ला सकती है। हमें उतने ही पैर पसारने चाहिए जितनी लंबी चादर हो।

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