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क्या क्रूर हैं हम

Published: May 01, 2016 11:10:00 pm

आजकल मीडिया और कोर्ट जागरूक नहीं हो तो कसम से चाहे हजारों आम आदमी काल की
भेंट चढ़ जाए पर इस क्रूर व्यवस्था के कोई फर्क ही न पड़े।

Opinion news

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मुंबइया फिल्म बनाते है क्या ‘कूल’ हैं हम और हम यहां दर्शाते हैं क्या ‘क्रूर’ हैं हम। मानसिक विमन्दित बच्चों की तड़ातड़ मौतें होती रही और जिम्मेदार सोते रहे। प्रशासन सोता रहा। मंत्रीजी सोते रहे। सरकार सोती रही। आजकल मीडिया और कोर्ट जागरूक नहीं हो तो कसम से चाहे हजारों आम आदमी काल की भेंट चढ़ जाए पर इस क्रूर व्यवस्था के कोई फर्क ही न पड़े। और इतनी मौतों के बाद फर्क पड़ा भी क्या है।

मंत्रीजी भी भरी गर्मी में अपनी ठंडी मांद से तब निकले जब उन्हें लगा कि अब भी कुंभकर्णी नींद से नहीं चेते तो जनता उन्हें कुर्सी से खींच कर नीचे गिरा सकती है। विमन्दित बच्चों का दर्द उन्हें जन्म देने वाले ही जान सकते हैं। हम दर्जनों ऐसे परिवारों को जानते हैं जिनके साथ प्रकृति ने अन्याय किया है और उनके घर विमन्दित बच्चों को जन्म दिया है।

ऐसे सैकड़ों माता-पिता हैं जो बचपन से लेकर जवानी तक अपने इन बच्चों को पालते हैं, उनकी हिफाजत करते हैं। इस दुनिया में ऐसा कौन होगा जो अपने जिगर के टुकड़े को अपने आप से दूर करता है। लेकिन बेचारा गरीब जिसके खुद के खाने-पीने का जुगाड़ नहीं वह अपने इन असहाय बच्चों को सरकारी विमन्दित गृहों में छोड़ते हैं। यह सरकार का दायित्व है कि वे इन बच्चों को पाले-पोसे। इनके जीवन की रक्षा करे। इसके लिए बाकायदा महकमा है। लाखों का बजट है। यहां काम करने वालों को सरकारी खजाने से तनखा मिलती है।

इन बच्चों की हिफाजत करना इनके काम में शामिल है। लेकिन हाय। इन मौतों के बाद जो सच सामने आ रहा है उसे देख-सुन कर तो इस सरकारी अमले को डूब मरना चाहिए। पता है द्वितीय महायुद्ध में क्या हुआ था। नाजी हमलावरों ने लाखों लोगों को बंदी बनाया। इनमें से जो जवान थे उन्हें मजदूरी के काम पर जोत दिया। जो युवा लड़कियां थीं उन्हें सैनिकों को सौंप दिया और जो बूढ़े और विकलांग थे उन्हें या तो गोली मार दी या गैस चैम्बर में झोंक दिया।

नाजियों ने यह काम युद्ध में किया। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी व्यवस्था ऐसा ही काम दबे छिपे पर्दों के पीछे चुपचाप कर रही है। ऐसे मामलों में एक बड़ी दिलचस्प बात यह भी सामने आती है कि पूरा सरकारी तंत्र इन घटनाओं की लीपापोती करने में जुट जाता है। अब छोडि़ए साहब। हम भी क्या बात करने लगे। इस समाज के बुद्धिजीवियों, विद्वानों को इन सामान्य मौतों पर प्रतिक्रिया देने की फुरसत कहां है।

हमारे साहित्यकारों को तो कविता के नए अंदाज पर चर्चा करनी है। प्रगतिशीलों को साम्प्रदायिकता के उफान पर बहस करनी है, संस्कृति वादियों को नए जमाने की आधुनिकता पर चिन्ता प्रकट करनी है, बेचारी सरकार को दुख है कि उसके हाथ से आईपीएल के मैच निकल गए। कमजोर, विमन्दित बच्चे तो वैसे भी भार की तरह थे और पूंजीपतियों, नौकरशाहों, भारी भरकम नेतओं को सिर पर उठाने वाली ‘बेचारी सरकार’ के कंधों से आम जनता का भार जितना कम हो उतना ही ठीक। गरीब का क्या है वह तो रो धोकर जी ही लेगा।

राही
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