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ये कहां आ गए हम..?

हमारी सहनशीलता को हो क्या
गया है? जिससे भी असहमति हो, बस उसका ही मुंह बंद करने की कोशिश? कभी पाकिस्तानी
गजल गायक गुलाम अली के कार्यक्रम

Oct 12, 2015 / 10:30 pm

शंकर शर्मा

Opinion news

Opinion news

हमारी सहनशीलता को हो क्या गया है? जिससे भी असहमति हो, बस उसका ही मुंह बंद करने की कोशिश? कभी पाकिस्तानी गजल गायक गुलाम अली के कार्यक्रम का विरोध तो पाक के पूर्व विदेश मंत्री की पुस्तक के विमोचन से पहले कार्यक्रम के आयोजक सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर स्याही मली जाती है। देश की बिगड़ती फिजा का हाल यह है कि साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने की झड़ी सी लगी है। कैसे सुधरेगा माहौल? सरकार ने चुप्पी क्यों ओढ़ रखी है? अच्छे दिनों के इंतजार में कहां आ गए हम? पढिए साहित्यकारों की पीड़ा आज के स्पॉटलाइट में…


ऎसे माहौल के विरूद्ध लौटाया है पुरस्कार
मंगलेश डबराल साहित्यकार
अब इस तरह की शक्तियां खुलकर मैदान में आ गई हैं जो देश में सांप्रदायिक सौहार्द, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्य और नागरिकों की आजादी पर आक्रमण करने में लगी हैं। यह सिलसिला अभी ही शुरू नहीं हुआ है बल्कि दीना नाथ बत्रा से शुरू हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से ए.के. रामानुजन के निबंध “थ्री हंड्रेड रामायनाज: फाइव एक्जांपल्स एंड थ्री थॉट्स” को बाहर निकलवाया। फिर साहित्यकारों पर हमले होने लगे। हाल ही में कन्नड़ साहित्य के मर्मज्ञ डॉ. एम.एम. कलबुर्गी की हत्या हुई।

उससे पहले नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे ही हत्याएं हुईं। फिर गजल गायक गुलाम अली के मुंबई में कार्यक्रम में पर धमकी दी गई और उसे रद्द करवाया गया। अब सुधींद्र कुलकर्णी के चेहरे पर स्याही पोती गई। ये सारी घटनाएं इस बात को साबित करती हैं कि देश की फिजा बिगड़ी हुई है। लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले हो रहे हैं। ऎसी स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं कि हमारे देश में सांप्रदायिक सौहार्द का तानाबाना टूटकर बिखर जाए।

कैसे लगे अंकुश
इन शक्तियों पर अंकुश लगाने वाली कोई ताकत नहीं है क्योंकि जो ताकत इन पर अंकुश लगा सकते हैं, वर्तमान में वही सत्ता में हैं। सरकार इन्हीं शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। यही वजह है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ दिन तक खामोश रहे। फिर वे उपदेशात्मक बातें करने लगे कि हिंदू-मुस्लिमों को लड़ना नहीं चाहिए। गरीबी से लड़ना चाहिए। राष्ट्रपति को असहिष्णुता की स्थिति पर बोलना पड़ा तो उन्होंने भी मुंह खोला।

जब सरकार मुखिया ही जब खामोश है। इस बीच देखिए, साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, संगीत सोम, योगी आदित्यनाथ सब लोग मुस्लिमों के खिलाफ जिस तरह के बयान देते रहे हैं। इन सभी बातों की परिणति दादरी में अखलाक मोहम्मद की हत्या के रूप में हुई और वह भी एक अफवाह के आधार पर। यहां पर एक सवाल उठता है कि देश का मुखिया ही देश की फिजा बिगाड़ने वालों पर अंकुश नहीं लगा पा रहा हो और केवल यही अपील करे कि इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाए। इन बातों की उपेक्षा कैसी की जा सकती है? क्या इन बातों का समाज पर असर नहीं होता है? आज मीडिया में हर जगह बल्कि सोशल मीडिया में इन सारी बातों का प्रचार हो जाता है। ऎसे हालात में लेखकों का विचलित होना स्वाभाविक है। ऎसी आशंका है कि ये घटनाएं बढ़ती ही जाएंगी और इन पर कोई रोक नहीं लग पाएगी।

लोकतंत्र में एक संतुलन की स्थिति होती है। हम जो लोकतंत्र में किसी को हिंसा या हिंसा संबंधी बयान को या हिंसा को भड़काने वाले बयान को भी स्वीकार नहीं करें। यह लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। आज देश में इन बुनियादी शर्तो का ही मजाक बनाया जा रहा है। ऎसे माहौल में लेखकों और बुद्धिजीवियों का चिंतित होना लाजिमी है। यही वजह है कि लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने शुरू किए हैं। मैंने भी पुरस्कार वापस किया है। साहित्य अकादमी पूरे मामले में खामोश बना रहा है और इसी वजह से अकादमी के विभिन्न पदों पर आसीन लोगों ने इस्तीफे देने शुरू किये हैं।

विरोध सांकेतिक नहीं
साहित्यकारों के इस्तीफों और पुरस्कारों को वापस करने का सिर्फ सांकेतिक या प्रतीकात्मक महत्व नहीं है। इसमें अतर्निहित अर्थ यह है कि देश में जो मौजूदा हालात हैं, उसे लेकर देश के बुद्धिजीवी वर्ग में गहरी हताशा और रोष है। इसी वजह से साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाये जा रहे हैं। आखिरकार लेखकों के पास चारा ही क्या है? लेखक के पास तो उसका लेखन ही है, वही उसकी अभिव्यक्ति है और वही उसके प्रतिरोध का औजार भी है। इन्ही सारी बातों के मद्देनजर मैं अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहा हूं और औरों के बारे में तो मैं नहीं कह सकता लेकिन इस पुरस्कार के साथ मिली राशि भी मैं लौटा रहा हूं।

क्या है साहित्य अकादमी पुरस्कार
सन् 1954 में अपनी स्थापना के समय से ही साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष मान्यता प्रदत्त भारत की प्रमुख भाषाओं में से प्रत्येक में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति को पुरस्कार प्रदान करती है। पुरस्कार की स्थापना के समय पुरस्कार राशि 5,000/- रूपए थी, जो 1983 में बढ़ाकर 10,000 कर दी गई। सन 1988 में बढ़ाकर इसे 25,000 व 2001 से यह राशि 40,000 रूपए किया गया। वर्ष 2003 से यह राशि 50,000 रूपए की गई तथा सन 2010 से यह राशि 1,00,000- रूपए कर दी गई है। पहली बार ये पुरस्कार सन् 1955 में दिए गए। हिन्दी का पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार 1955 में माखनलाल चतुर्वेदी को उनके काव्य हिम तरंगिणी के लिए दिया गया था।

इन्होंने लौटाए सम्मान
मोदी सरकार पर देश की सांस्कृतिक विविधता कायम न रख पाने का आरोप लगाते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का ऎलान किया। सहगल यह प्रतिष्ठित पुरस्कार 1986 में उनके अंग्रेजी उपन्यास “रिच लाइक अस” के लिए दिया गया था।
नयनतारा , प्रसिद्ध लेखिका


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लेखकों पर हो रहे हिसंक हमलों पर चुप्पी चिंताजनक है। इस मुद्दे पर सम्मान लौटाने वाली नयनतारा सहगल सही हैं। लेखक विरोध के अलावा और क्या कर सकते हैं। यह फैसला देश में बढ़ रहे सांप्रदायिक हिंसा और लेखकों पर हो रहे हमले के विरोध में लिया। अशोक वाजपेयी पूर्व अध्यक्ष ललित कला अकादमी

साहित्य अकादमी की गवनिंüग काउंसिल से इस्तीफा दिया। कहा- अकादमी ने डॉ. कलबुर्गी को लेकर खेद तक जाहिर नहीं किया। अकादमी लेखक के खिलाफ हिंसक घटना पर खड़ी नहीं हो सकती, तो हम बढ़ती असहिष्णुता से लड़ने की क्या उम्मीद करें? शशि देशपांडे, उपन्यासकार


बढ़ती असहिष्णुता चिंताजनक

उदय प्रकाश साहित्यकार
मैंने साहित्य अकादमी पुरस्कार सबसे पहले लौटाया है। चार सितम्बर को फैसला किया था और ग्यारह सितम्बर को लौटा दिया। काफी पहले हो सकता है कि यह अकेली सी आवाज रही हो पर अब आप देख रहे हैं कि धीरे-धीरे माहौल बन रहा है। तीस से ज्यादा साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटा दिए हैं।

ये तो उम्मीद की जाए
हो हो क्या रहा है कि दिनों-दिन असुहिष्णुता बढ़ रही है। किताबों को बेन किया जा रहा है या कोर्सेज से पाठ निकाले जा रहे हैं । जरा तर्क की बात करें तो कोई न कोई आ जाएगा, हमारी भावनाएं आहत हुई है यह कहते हुए। आप देख रहे हैं कि गुलाम अली गाने से रोक दिया गया। और सुधीन्द्र कुलकर्णी के कालिख पोत दी। कलबुर्गी कन्नड साहित्य में बहुत काम था। साहित्य अकादमी जैसी संस्था जो बनी ही साहित्यकारों के लिए हों उसकी क्या यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि जिस साहित्यक ार को यूं मार दिया जाए कम से कम कोई शोक संदेश तो भिजवाती। मेरा कहना यह है कि ट्रेन दुर्घटना भी होती है तो रेल मंत्री खुद जाते हैं या किसी को भेजते है।

देखिए, कोई बैंक अपने कंज्यूमर की मौत पर भले ही संवेदना पत्र नहीं भेजे लेकिन साहित्य-कला व नाटक संगीत से जुड़ी संस्थाओं से तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए। कलबुर्गी की मतांध हिंदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और दहशतनाक हत्या है, उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है। ऎसी हिंसा ग्रास रूट लेबल पर पहले कभी नहीं देखी गई। आप तर्क की बात करें और हत्या कर दी जाए। मुझे लगता है कि निचले स्तर पर हम ऎसा समाज बना रहे हैं जिसमें सहिष्णुता को कोई जगह नहीं।

कौन करेगा चिंता?
यह भी चिंता की बात है कि क्रिमिनल प्रवृत्ति व धाार्मिक भावनाएं भड़काने वाले बाबाओं को सरकार जेड सुरक्षा प्रदान करती है। लेखकों की कोई चिंता नहीं करता। अगर अकादमियां भी चिंता नहीं करेंगी तो कौन करेगा? मैं यह भी साफ करना चाहता हूं कि मैं किसी राजनीतिक दल से नहीं जुडा हुआ। हम नागरिक पहले हैं और उसके बाद लेखक और कलाकार, इसीलिए नागरिक समाज की चिंता करते हैं।


बन रहे हैं आपातकाल जैसे हालात
राजेश जोशी कवि-लेखक
जब से देश में नई सरकार आई है, उसके बाद राजनीति परिदृश्य में यह देखना में आ रहा है कि असहिष्णुता निरंतर बढ़ती जा रही है। जब किसी भी समाज में असहिष्णुता बढ़ती है तो वे शक्तियां ताकतवर हो जाती हैं जो दूसरों की स्वतंत्रता का हनन करना चाहती हैं। ये शक्तियां राजनैतिक या धार्मिक हों या किसी भी प्रकार की ताकत हों, वे दूसरी की स्वतंत्रता का हनन करती हैं। यही दुर्भाग्य से हुआ है कि लगातार असहिष्णुता बढ़ी और इसी असहिष्णुता के चलते सांप्रदायिकता बढ़ रही है। ये दोनों ही बातें किसी भी लोकतंत्र के बहुत ही घातक हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उसी तरह से हनन हो रहा है जिस तरह से आपातकाल के दौरान हुआ था। तीन बड़े चिंतक और लेखक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कन्नड़ भाषा के साहित्यकार एम.एम कुलबर्गी की हत्याएं केवल इसलिए हुईं क्योंकि बहुत से लोग इनसे असहमत थे। आप किसी से भी असहमत हो सकते हैं। असहमत होने में किसी को कोई परेशानी नहीं है लेकिन असहमति का यह तरीका नहीं होता। आप शब्द का जवाब शब्द से दे सकते हैं किसी अन्य तरीके से नहीं। बंदूक से तो बिल्कुल भी नहीं। इन तीनों लेखकों की हत्याएं इस बात को जाहिर करती हैं कि देश और समाज में किस तरह से असहिष्णुता तेजी के साथ बढ़ी है।

चुप क्यों हैं प्रधानमंत्री मोदी
समाज में बढ़ती असहिष्णुता इसलिए बहुत घातक लग रही है क्योंकि इस पर सरकार और प्रधानमंत्री चुप हैं। यदि इसका प्रतिकार सही समय पर ताकत के साथ होता तो इसे रोका जा सकता था। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर तो चुप रहने का आरोप लगता था लेकिन हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो बहुत अधिक बोलने के लिए जाने जाते हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वे इन सारे मुद्दों पर चुप्पी साधे हुए हैं। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह घातक है।

पुरस्कार लौटाना प्रतिरोध की छोटी और सामान्य सी कार्रवाई है। लेखक गुस्से और विरोध में होगा तो अधिक से अधिक वह अपने पुरस्कार को ही लौटा सकता है। सरकार की सबसे बड़ी एकेडमी जो साहित्य की केंद्रीय एकेडमी है, भले ही वह स्वायत्तशासी संस्था है, उसके पुरस्कार को लौटाना इस बात को जाहिर करता है कि हम आपकी सारी बातों से असहमत हैं। सही है कि यह एक सांकेतिक प्रतिरोध है लेकिन इतना जरूर है कि अब समाज में ऎसे प्रतिरोध से कहीं अधिक बड़ी कार्रवाई की जरूरत है जिसमें एक सामूहिक कार्यवाई हो।

इस कार्रवाई में वे सभी शामिल हों जो मनुष्य की स्वतंत्रता, उसकी अभिव्यक्ति और धर्मनिरपेक्षता जैसे तमाम मूल्यों में विश्वास करते हैं। उन सभी को साथ आकर इस खतरे का सामना करना पड़ेगा। आज यदि हमने इस खतरे को चुनौती नहीं दी तो हम दुर्भाग्य से इतिहास के उन काले पन्नों में समा जाएंगे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के हैं जिसमें हिटलर और मुसोलनी जैसे तानाशाह हुए।

पुरस्कार राशि भी लौटाएंगे
हमारे पुरस्कार को लौटाने का मतलब ही है ही हम इसके साथ अपनी पुरस्कार राशि भी लौटाएं। मुझे 2002 में यह पुरस्कार मिला था और चालीस हजार रूपए की पुरस्कार स्वरूप राशि मिली थी, जिसे मैं लौटाने वाला हूं। हालांकि यह बात अलग है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी इस मामले पर काउंसिल की बैठक बुलाना चाहते हैं कि इस राशि को वापस कैसे लिया जाए?

और भी तरीके हैं विरोध जताने के
जो लोग इस तरह का काम कर रहे हैं उनका यह तरीका ठीक नहीं है। इस मुद्दे को लेकर 23 अक्टूबर को साहित्य अकादमी की बैठक बुलाई गई है। विरोध करने के दूसरे तरीके भी होते हैं लेकिन पुरस्कार लौटाना इसका हल नहीं। साहित्यकारों को यह पुरस्कार कोई सरकार नहीं बल्कि साहित्य अकादमी देती है। यह साहित्यकारों की लेखनी के चलते ही उनको दिया जाता है। ऎसे में साहित्यकारों का इस तरह का विरोध जायज नहीं कहा जा सकता।
विश्वनाथ तिवारी अध्यक्ष साहित्य अकादमी

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