व्यंग्य राही की कलम से
पिछली तीन रातों से हमें एक सपना लगातार आ रहा है। हमें लगता है मानो बिंयाबान में हमारी लाश पड़ी है और हम खुद उसे अपने कंधे पर ढो कर श्मशानघाट ले जा रहे हैं। सपने के दौरान हमारे पसीने छूट जाते हैं और हमारी सांस धौंकनी की तरह चलने लगती है। यह सपना बार-बार क्यों आ रहा है, इसका कारण दबा-छिपा नहीं है। दरअसल जब से हमने मांझी को अपनी पत्नी की लाश को कंधे पर लाद कर दस किलोमीटर का सफर तय करते देखा है, वह दृश्य हमारे मस्तिष्क में मानो जम-सा गया है।
कहीं अपनी मां के शव को बल्ली पर बांध कर ले जाते लोगों की तस्वीर दिखती है तो कहीं बलवानों के रास्ता न देने पर कमर- कमर पानी के बीच से खाट पर डालकर शव ले जाते गरीब नजर आते हैं। यहां सिर्फ वह आदमी देश के करीब है, जो या तो मूर्ख है या फिर गरीब है। कई बार तो सोच-सोच कर हमारे दिमाग की नसें फटने लगती हैं कि हमारी सरकारें आखिर किस प्रगति और कौन से विकास का रोना रोती रही हैं। हमारा समाज आखिर महानता का डंका पीटता रहता है। हमारी किस संस्कृति किस संवेदनशीलता का ढोल बजाती रही है।
यह ‘संवेदनशीलता’ क्या वही है जिसके चलते देश के एक गरीब को अपनी मृत बीवी की लाश कंधे पर ढोनी पड़े? क्या हमारी यही संस्कृति है जिसमें लोग अपनी ऊंची जात पर गाल बजाते नजर आते हैं? क्या वे कथित ‘दलित’ जो करोड़पति होने के बावजूद अपनी नाकारा औलादों को रिजर्वेशन दिलाने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते दिखते हैं?
या फिर वे प्रगतिशील बुद्धिजीवी जो अंधेरे कमरे में बैठकर अपनी संघर्ष यात्रा का बखान करते दिखते हैं? ऐसे हालात में हे दरवज्जे वाले पीर बाबा, हे तबेले वाले बलीकाका। हमें शक्ति दे, जो वक्त पर हम खुद अपनी लाश उठा कर चल सके। खुद को इस लोकतंत्र का चांडाल समझ सपनों में तो लाश ढो ही रहे हैं।
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