गजेन्द्र! तुम तो सातवें आसमान में जाकर बैठ गए भाई
लेकिन हम तुमसे एक सवाल जरूर पूछना चाहते हैं- तुम दिल्ली गए क्यों थे? तुमने सोचा
होगा कि दिल्ली “दिलवालों” का शहर है, देश की राजधानी है,गरीबों की बात सुनती है।
वहां जाकर लोगों की किस्मत बदल जाती है। दिल्ली दूध वाले को मिनिस्टर और चाय वाले
को प्राइम मिनिस्टर बना देती है लेकिन यह तुम्हारा भ्रम है। दिल्ली दलालों का अड्डा
बन चुकी है। दिल्ली में जितना प्रदूषण है उतना कहीं नहीं है। हम जानते हैं गजेन्द्र
तुम मरना नहीं चाहते थे। भरी जवानी में मरना कौन चाहता है। दिल्ली में तो ऎसे-ऎसे
बूढ़े बैठे हैं जिनके पोतों की उम्र तुम्हारे जितनी थी लेकिन अब भी वे आला
कुर्सियों पर गिद्ध दृष्टि जमाए बैठे हैं। तुम पेड़ पर लटके रहे और दिल्ली के
भाग्यविधाता भाषण देते रहे।अगर तुम मरते नहीं तो वे तुम्हें आत्महत्या की कोशिश या
शांति भंग करने के जुर्म में जेल भेज चुके होते। दिल्ली सिर्फ जान की कीमत लगा सकती
है। वह भी उस जान की जिसे सारी दुनिया ने मरते देखा। तुम्हारे जैसे हजारों किसान मर
रहे हैं लेकिन कौन सा मंत्री उनके घर गया? तुम्हारी मौत के बाद बेतुके बयान देने
वाले भुंभाड़ रहे हैं। वे जानते हैं कि उनकी मूर्खता से जनता कितनी नाराज है। ऎसे
लोगों की भी कमी नहीं है गजेन्द्र जो साबित करना चाहते हैं कि तुम पगडियों के बड़े
कलाकार थे। वे मानते हैं कि किसान वही जो भूखौ, नंगा, फटेहाल रहता है। वे तो आज भी
मुंशी प्रेमचंद के “होरी” को ही किसान मानते हैं।
दिल्ली के रईसों को लगता है कि
दाल और सब्जी के दाम इसलिए बढ़े हैं कि इन चीजों को किसानों और गरीबों ने खाना शुरू
कर दिया। हो सकता है तुम्हारे दिल में भी नेता बनने की अभिलाषा हो। ऎसी इच्छा रखना
कोई गुनाह है? लेकिन नेता बनने का फॉर्मूला हम से पूछ लेते गजेन्द्र।
आज जो जनता को
जितनी चीजें मुफ्त देने का वादा कर सके वही चुनाव जीत जाता है- मुफ्त पानी, मुफ्त
बिजली, मुफ्त वाई फाई। टके सेर भाजी, टके सेर खाजा। लेकिन ये सब “अंधेर नगरी” के
राजा हंै। जो जनता को मुफ्तखोर बना कर देश को पैंदे में बिठा रहे हैं। आज सब
तुम्हारे परिवार को मुआवजा दे रहे हैं लेकिन तुम्हारी बहन ने सही कहा कि लो मैं
देती हूं दस लाख कोई नेता मर कर तो बताए।
दिल्ली जाना तुम्हारी बड़ी भूल थी।
दिल्ली तो बड़ी बेरहम है। यहां भाई ने भाई का कत्ल किया। बेटे ने बाप को जेल में
सड़ाया। कितने ही वजीर एहसान फरामोश निकले। अरे जो दिल्ली गालिब और मीर को ही आसरा
नहीं दे पाई वहां आम नागरिक की क्या बिसात? ये सब चार दिन के तमाशे हैं। फिर सब भूल
जाएंगे कि एक युवा जन्तर मन्तर के नीम पर लटक गया था। सिर्फ तुम्हारी बेटी-बहनें और
परिजन हाय हाय कर रहे हैं। नेताओं के लिए तुम सिर्फ एक “बयान” हो गजेन्द्र। हां
तुम्हारे लिए लाखों आम नागरिक जरूर दुखी हैं।
राही