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क्यों मजबूर हुआ मजदूर?

Published: Apr 29, 2016 10:19:00 pm

देश-दुनिया के किसी भी कोने में चले जाइए, श्रमिकों की हालत एक जैसी
मिलेगी। भारत में श्रमिक कल्याण व सुरक्षा की हाईटेक बातें भी शिगूफा साबित
हो रही हैं।

Opinion news

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प्रो. डी.पी.शर्मा ‘धौलपुरी’ सलाहकार, आईएलओ
विकसितऔर विकाशसील देश आज धरती से अंतरिक्ष और मंगल ग्रह तक छलांग लगाने को आतुर हैं। इस बात से बेखबर हैं कि आज भी हमारे आस-पास लाखों ऐसे गरीब मजदूर यथा बच्चे, वृद्ध, विकलांग, महिला एवं पुरुष रह रहे हैं जिन्हें दिन भर की हाड़तोड़ मजदूरी के बाद भी दो वक्त का भोजन भी मयस्सर नहीं होता। उनके लिए मानवाधिकार तो बहुत दूर की बात है। आर्थिक दृष्टि से समृद्ध लोकतांत्रिक देशों के सभ्य समाज में आज भी ‘मजदूर’ शब्द सुनते ही दिमाग में दबे कुचले, पिछड़े, गरीब एवं बदहाली में जीवनयापन करने वाले लोगों की तस्वीर उभर कर सामने आती है। सवाल यह उठता है कि आखिर असमानता का ऐसा मंजर क्यों और कब तक? दुनिया की प्रगति का पहिया आखिर कब तक मजबूरी में लिपटे मजदूर के भरपेट भोजन एवं तन पर अदद कपड़े के सपनों को कुचलता रहेगा?

कैसी सामाजिक सुरक्षा?
किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार एवं राष्ट्र का, लोगों की सामाजिक सुरक्षा, न्याय एवं जीने का अधिकार प्रथम कानूनी उद्देश्य होना ही चाहिए। यदि हम भारत की बात करें तो यह सवाल विचारणीय है कि इस दिशा में सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयास कितने कारगर साबित हुए? देश के मजदूर का जीवन स्तर कितना सुधरा? वर्ष 2012 के आंकड़ों के अनुसार भारत में मजदूरों की संख्या लगभग 487 मिलियन थी जिनमें 94 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के थे। भारत में मजदूरों की ये तस्वीर दुनिया में चीन के बाद दूसरा स्थान रखती है। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि पिछले दो दशक से सत्तासीन सरकारें भोजन का अधिकार, काम का अधिकार, नरेगा, एवं अन्य कई योजनाएं लाई। हर योजना में एक बात आम थी कि मजदूरों को आर्थिक लाभ तो हुआ, उनकी जेब में कुछ सरकारी खजाने से पैसे भी पहुंचे लेकिन उन्हें स्वावलंबी बनाने की दिशा में ठोस काम नहीं हुआ।

अशांति का बड़ा कारण
दिल्ली में बैठकर बनी ये योजनाएं मजदूर के गांव तक पहुंचते- पहुंचते अपना कल्याणकारी स्वरूप खो बैठीं और महज सरकारी खजाने से पैसे के उपभोग का जरिया मात्र बनकर रह गईं। उनकी दूरगामी समृद्धि के प्रयास सिर्फ कागजों की शोभा बन कर ही रह गए। नरेगा में जो पैसा सरकारी खजाने से गरीब या मजदूर को मिला उसके एवज में कितना काम राष्ट्र निर्माण के लिए हुआ और उसकी जमीनी हकीकत क्या है ये आज का ज्वलंत सवाल है।

राजनेता वाहवाही लूटने के लिए आपस में लड़ रहे हैं। हाल में घोषित नवीन ‘जन धन योजना’ से एक लाभ तो होने की सम्भावना है कि सरकार एवं मजदूरों के बीच बिचौलिये की भूमिका जरूर कम हो जाएगी जो भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी कड़ी है। आज दुनिया दो ध्रुवीय हो चुकी है। एक वर्ग शोषक का है तो दूसरा वर्ग शोषित का। लोक कल्याणकारी सरकारें इनमें संतुलन स्थापित करने में शुरू से आज तक लगी हैं। दोनों वर्गों की असंतुलित भागीदारी और यही बंटवारा अनेकों रूपों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोह एवं सामाजिक अशांति का कारण बनते रहे हैं।


बढ़ती जा रही है खाई
संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्र एजेंसी ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ (आईएलओ) के अनुसार दुनिया में सार्वभौमिक शांति तभी स्थापित हो सकती है जब सामाजिक न्याय की अवधारणा को सही मायने में लागू किया जाए। एक अमरीकी शोध अध्ययन के अनुसार हाल में उत्तर अफ्रीकी देशों, खाड़ी देशों में जो सिविल वार देखने को मिला उसके पीछे वो मजदूर एवं बेरोजगार थे जिनके हाथ में काम एवं पेट में अनाज नहीं था।

सरकारों एवं सत्तासीन शासकों ने उनको कुचलने का प्रयास किया। ऐसी क्रांति के प्रयास सफल हुए अथवा विफल यह अलग बात है लेकिन इतना जरूर है कि ये शोषक एवं शोषित समाज की खाई को और गहरा कर गए जिसके दूरगामी परिणाम सामने आना बाकी है। अगर ईमानदारी से देखें तो अभी तक हमारे देश में सरकारों ने कुछ प्रयासों को छोडकर कोई भी ऐसा महत्वपूर्ण एवं ठोस कदम नहीं उठाया जिससे 2008 के आईएलओ के प्रस्तावों के अनुसार मजदूरों के रोजगार, कार्य सुरक्षा, बीमा, स्किल विकास जैसे मुद्दों पर काम हो सके। मजदूर जहां के तहां है।

ये सब हैं हाईटेक शगूूफे
मजदूर कल्याण की दिशा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अक्टूबर 2014 में ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमदेव जयतेÓ कार्यक्रम की घोषणा की थी। इसी के साथ ‘ श्रम सुविधाÓ नामक यूनीफाइड लेबर पोर्टल एवं प्रोविडेंड फण्ड के लिए यूनिवर्सल अकाउंट नंबर का भी शुरू किया गया। शुरुआती दौर में ऐसा लगा कि देश के चार करोड़ मजदूर “यूनिक लेबर आइडेंटिफिकेशन नंबर (लिन) से निश्चित रूप से लाभान्वित होंगे। लेकिन हमारे तकनीक प्रेमी प्रधानमंत्री को यह भी ध्यान रखना चाहिए किजिस मजदूर को खुद के गुजारा लायक मजदूरी नहीं मिल पाती हो उसके लिए तो ये सारे प्रयास हाई-टेक शगूफे ही कहे जाएंगे। भाषा की स्थानीयता की बात करने वाली सरकार आज भी चीन, कोरिया एवं रूस जैसे देशों से बहुत दूर है जहां हर सरकारी कामकाज राष्ट्रीय भाषा में होता है । अपनी भाषा में काम करने के बावजूद ये देश कहां है और हम कहां?

इस पर देें ध्यान
कठोर रोजगार कानून के कारण देश में असंगठित क्षेत्र बढ़ा है। इससे बेरोजगारी भी बढ़ी है। सवाल उठता है कि सरकार के बड़े- बड़े सलाहकार क्या जमीनी हकीकत के देश के गरीब, मजदूर व बेरोजगारों के लिए काम करेंगे? यह वर्ग आर्थिक सुधारों का लाभ लेकर प्रगति की राह में आगे नहीं बढ़ पाया तो पुरानी योजनाएं नए पैक में ही साबित होकर रह जाएंगी।

सुरक्षा उपाय जरूरी
गौ र करना होगा कि तकनीक देना उतना जरूरी नहीं जितना कि उसके उपयोग को सुनिश्चित करना। साथ ही उससे जुड़ी आधारभूत शिक्षा, प्रशिक्षण का प्रचार एवं प्रसार भी होना चाहिए। अन्यथा ये तकनीकें ‘सफ़ेद हाथी’ साबित हो जाएंगे। भारत जैसे विकासशील देश के लिए मजदूर को आज वेबसाइट, सूचना तकनीकी एवं सरकारी कार्ड की जरुरत तो है पर यह भी देखना होगा कि क्या मजदूर के काम को सुगम एवं सुरक्षित करने की तकनीक पर भी कोई काम हो रहा है? भारत में ऐसे कितने मजदूर हैं जो कार्य स्थल पर सुरक्षा कवच यानी हेलमेट, विशेष उपकरण एवं सिग्नल सूचक यंत्रों का इस्तेमाल करते हैं। नियोजकों को सरकारें कितना बाध्य करती हैं कि मजदूरों को ये सुविधाएं दी जाएं? सरकारी दफ्तरों, अफसरों के चैम्बर्स एवं कंपनियों के कार्यालयों की चमक-दमक से परे गरीब मजदूर की सुरक्षा ज्यादा जरूरी है।

संवेदनहीनता की हद
विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भोजन का अधिकार कानून के बावजूद सैकड़ों लोग भूख से मर जाते हैं? आलम ये है कि अगर कोई गरीब- किसान मजदूर भूख से मर भी जाये तो उसके लिए जांच समिति बना दी जाती है। बाद में विसरा रिपोर्ट दस साल बाद इस बात का खुलासा करती है कि अमुक व्यक्ति भूख से नहीं मरा क्योंकि उसकी पेट के धोवन की लेबोरेटरी जांच में अनाज के लक्षण पाये गए हैं। क्या यही है मजदूर कल्याण?

आईना दिखाने वाले
हम मुगालते में हैं कि वर्ष 2020 तक विश्व को अधिकाधिक लेबर की जरूरतें हिंदुस्तान पूरी करेगा। सवाल यह है कि क्या हम भारत को कृषि आधारित देश से बदलकर मजदूर आधारित देश बनाना चाहते हैं? एक तरह से यह ठीक भी है क्योंकि आज हमारे यहां हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज सिर्फ दिखावटी लेबर ही तो पैदा कर रहे हैं। नास्कॉम की ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली ही नहीं बल्कि हमें हकीकत का आइना दिखाने वाली है कि कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे ये तकनीकी संस्थान बेरोजगार अद्र्ध कुशल श्रमिक पैदा करने वाले कारखाने बन गए हैं। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार केवल 53 प्रतिशत भारतीय युवक ही बैंक खाता धारी हैं जो चीन के 79 प्रतिशत की तुलना में काफी कम हैं। ऐसे में उम्मीद है कि सरकार की जनधन योजना मजदूर एवं बेरोजगारों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती होंगी।

कानून की गलियां भी खूब
भारतीय अर्थ व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव की तरफ ले जाने की तैयारी करने वाली मौजूदा सरकार को विरासत में ऐसी जमीन मिली है जिसमें आर्थिक सुधारों के बजाय नई-नई कल्याणकारी योजनाओं के गीत गाने के कार्यक्रम खूब हुए। एक सिद्धांत के अनुसार योजनाएं कभी भी खऱाब नहीं होतीं क्योंकि वे कल्याण के लिए बनाई जाती हैं। सिर्फ अच्छा एवं बुरा स्वरूप उनको लागू करने वालों एवं लाभ लेने वालों की नीयत पर निर्भर करता है। भारत सरकार ने 2015 में चाइल्ड लेबर सुधार विधेयक 2012 को पारित किया। इस कानून के अनुसार स्कूल टाइम के आलावा 14 साल से 18 साल के बच्चों को पारिवारिक व्यवसाय में छूट देने का प्रावधान किया गया। पेशेवर लोगों ने इसमें भी रास्ते निकाल लिए। यही कारण है कि आज सभी जगह बाल मजदूरी बड़ी समस्या बनी हुई है।


ये ‘सक्षम हाथ’ ही खोलेंगे तरक्की का रास्ता
जयंतीलाल भंडारी आर्थिक मामलों के जानकार
पिछले दिनों देश में श्रम कानून की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में विश्व बैंक की रिपोर्ट और अमरीकी अंतरराष्ट्रीय कारोबार आयोग (यूएसआईटीसी) की रिपोट्र्स प्रकाशित हुईं। विश्व बैंक की नई अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत के श्रम कानून दुनिया के सर्वाधिक प्रतिबंधनात्मक श्रम कानून हैं।

देश के श्रम कानून लंबे समय से लाइसेंस राज की विरासत को ढोने वाले कानून बने हुए हैं। जबकि यूएसआईटीसी रिपोर्ट का कहना है कि भारत में विदेशी निवेश और कारोबार संबंधी अनुकूल ठोस कदमों की कमी बनी हुई है। यह भी उल्लेखनीय है कि इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट (ईआईयू) के द्वारा विश्व व्यापार के संदर्भ में तैयार जिस रिपोर्ट में विकासशील और विकसित देशों में व्यापार करने या उद्योग लगाने के लिए श्रम परिप्रेक्ष्य में अनुकूल माहौल की चर्चा की है, उस रिपोर्ट में भारत को 46वां स्थान दिया गया है। जबकि चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको और थाइलैंड की रैकिंग भारत से काफी ऊपर बताई गई है।

ढेरों कानून पर विफल
उल्लेखनीय है कि श्रम और औद्योगिक कानूनों की संख्या के मामले में हमारा देश दुनिया में सबसे आगे है। केन्द्र सरकार के पास श्रम से संबंधित 50 और राज्य सरकारों के पास श्रम से संबंधित 150 कानून हैं। कारोबार के रास्ते में कई कानून ऐसे भी लागू हैं जो ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बनाए गए थे। कई वर्षों से यह अनुभव किया जा रहा है कि श्रम कानून भी उत्पादकता वृद्धि में बाधक बने हुए हैं।

इसी परिप्रेक्ष्य में विधि आयोग ने 1998 में ऐसे कानूनों का अध्ययन किया था और ऐसे कानूनों की एक लंबी सूची तैयार की थी, जिन्हें समाप्त कर संबंधित कार्यों को गतिशीलता दी जा सकती है। उच्चतम न्यायालय भी कई बार अप्रासंगिक हो चुके ऐसे कानूनों की कमियां गिनाता रहा है, जो काम को कठिन और लम्बी अवधि का बनाते हैं। ऐसे कानूनों से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान भुगतना पड़ रहा है। कई शोध अध्ययनों में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि भारत में उदारीकरण की धीमी और जटिल प्रक्रिया के पीछे श्रम सुधारों की मंदगति एक प्रमुख कारण है।

सिफारिशें बंद बस्ते में
वर्ष 1991 के बाद से भारतीय उद्योगों को विश्वभर में प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के उद्देश्य से वित्तीय क्षेत्र, मुद्रा-बैंकिंग व्यवसाय, वाणिज्य, विनिमय दर और विदेशी निवेश क्षेत्र में नीतिगत बदलाव किए गए हंै। इनके कारण श्रम कानूनों में बदलाव भी दिखाई दे रहे हैं। अब भारत में निवेश बढ़ाने और मेक इन इंडिया अभियान के सफल होने की संभावनाएं साकार करने के लिए श्रम सुधार जरूरी हो गए हैं। यद्यपि अब तक देश में श्रम सुधार के मद्देनजर दो श्रम आयोग बने हैं। पर उनकी सिफारिशों का क्रियांवयन नहीं हुआ।

कैसे खुश हों श्रमिक
अब श्रम कानूनों में लचीलापन लाने और इंस्पेक्टर राज को समाप्त करने के लिए श्रम नियमों को सरलतापूर्वक लागू करना होगा। श्रम कानूनों की भरमार कम करनी होगी और ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बनाने होंगे, जिनसे उत्पादन बढ़े और उपयुक्त सुरक्षा ढांचे के साथ श्रमिकों का भी भला हो। श्रम कानूनों में बदलाव का मतलब श्रमिकों का संरक्षण समाप्त करना नहीं है वरन इससे उद्योग-कारोबार के बढऩे की संभावना बढ़ेगी और उद्योगों में नए श्रम अवसर निर्मित होंगे। उद्योग जगत को भी यह समझना होगा कि वह श्रमिकों को खुश रखकर ही उद्योगों को तेजी से आगे बढ़ा सकेगा।

अब दक्षता विकास हो
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि यदि भारत को चीन से प्रतिस्पर्धा करनी है और भारत की आर्थिक तस्वीर संवारना है तो हमें युवाओं के कौशल विकास, ऊंचे उत्पादन स्तर तथा विकास की तेज रफ्तार पर ध्यान देना होगा। वस्तुत: हमें चीन से प्रतिस्पर्धा करने के लिए चीन की श्रम कौशल आधारित विकास रणनीति से सीख लेना होगी। चीन ने अपनी सस्ती श्रमशक्ति को शिक्षित-प्रशिक्षित करने की रणनीति अपनाई है। अब भी भारत की तुलना में चीन तेजी से श्रमबल को मानव संसाधन के रूप में परिणित करते हुए दिखाई दे रहा है। चीन अपनी जीडीपी का तीन फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करता है, जबकि भारत अपनी जीडीपी का 0.9 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करता है।

कोर्स जो रोजगार दिलाएं
भारत में औसतन 20 फीसदी युवा कौशल प्रशिक्षित हैं, वहीं चीन के 80 फीसदी युवाओं की मुट्ठियां कौशल प्रशिक्षण से परिपूर्ण हैं। देश में अब आईआईटी से ज्यादा आईटीआई की दरकार है। ताकि कौशल प्रशिक्षित आबादी आर्थिक वरदान बन सके।

टैलेंट पूल में अव्वल होंगे हम
ऑक्सफोर्ड विवि के अर्थशास्त्रियों ने एक रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया में अगले दस वर्षों में प्रतिभाशाली वर्ग (टैलेंट पूल) में 7.3 फीसदी वृद्धि के साथ भारत दुनिया में पहले क्रम पर होगा। प्रतिभाशाली वर्ग में अमरीका 1.4 फीसदी, फ्रांस 0.9 फीसदी और ब्रिटेन 0.5 फीसदी वृद्धि दर के साथ काफी पीछे होंगे। कहा है, अगले दशक में भारत में कॉलेज शिक्षित प्रतिभाशाली वर्ग बढ़कर 4.5 करोड़ से अधिक हो जाएगा। जिन्हें देश की अर्थव्यवस्था और दुनिया के बाजार में रोजगार जरूरतों के मुताबिक प्रोफेशनल बनाना होगा।
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