देश में इस समय एक ऎसा दल सत्ता में है जो यह कहता रहा है कि हिंदू तो स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष होता है! ऎसे में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें बढ़ने की खबर कई दृष्टियों से विचार की मांग करती है। आज के स्पॉटलाइट में पढिए भारत में सांप्रदायिक हिंसा और उसके निदान के अनेक पक्षों को समेटता हुआ विश्लेषण :
सभी लेते हैं सांप्रदायिक हथकंडों का सहारा
सांप्रदायिक हिंसा बढ़ने के पीछे कानून-व्यवस्था की विफलता को तो जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह तो नहीं कहा जा सकता कि एनडीए के शासनकाल में यूपीए शासन के समय से कानून-व्यवस्था की स्थिति बदतर हुई है।
बल्कि इस मामले में दोनों का शासन समान ही कहा जाएगा। पर एक अंतर जरूर आया है कि अब केंद्र में जो पार्टी आई है उसके ऊपर हिंदुत्व का लेबल लगा हुआ है। इसलिए इसके नाम पर उसकी आलोचना आसान है। किसी को भड़काना आसान है। इस पार्टी के साथ कुछ स्पष्ट विजुअल्स और प्रतीक जुड़े हुए हैं। ये प्रतीक हमारे आम जीवन से आते हैं। जैसे अगर कोई गाय को बचाने या रक्षा करने वाली बात करता है तो उसे आसानी से हिंदुवादी करार दिया जा सकता है।
ये सब स्थितियां पहले भी थीं, पर पहले भाजपा का शासन नहीं था और कांग्रेस ने कभी इन चीजों को बढ़ावा नहीं दिया, कांग्रेस ने कभी इनके साथ अपने को स्पष्ट रूप से जोड़ा नहीं था। पर भाजपा का शासन आ जाने से अब उन्हीं रोजमर्रा की स्थितियों, उन्हीं प्रतीकों – विचारों और उन्हीं अप्रासंगिक लोगों के बयानों के अर्थ बदल जाते हैं, उन्हें तवज्जो मिल जाती है।
उन्हें एक सामान्य स्थिति न मानकर साजिश मान लिया जाता है। इस प्रकार एक सामान्य रोजमर्रा की स्थिति भी अब एक सांप्रदायिक रंग ले लेती है अथवा उसे सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है।
सत्ता जाना है कारण
इसलिए अगर पिछले कुछ माह में स्रांप्रदायिक दंगे बढ़े हैं तो उसके पीछे यह कारण नहीं है कि बीजेपी सत्ता में आई है। बल्कि इसका एक कारण यह जरूर हो सकता है कि लंबे समय बाद कुछ लोगों के हाथ से सत्ता गई है। ये सत्ता से बाहर होने वाले लोग हिंदू और मुस्लिम दोनों हैं।
इन लोगों की पूरी राजनीति ही अल्पसंख्यकों के भयादोहन पर चलती आई है। अल्पसंख्यकों में डर और असुरक्षा का भाव पोषित कर अपने लिए वोट बैंक बनाना इनका काम रहा है। अब जबकि भाजपा सत्ता में है तो ये कोई मौका नहीं छोड़ रहे, छोटी सी घटना को सापं्रदायिक हिंसा में बदलने में या फिर उसे सापं्रदायिक हिंसा का रूप देने में।
दिल्ली में पिछले दिनों चर्चो पर जो हमले हुए , उनमें अब तक जो गिरफ्तारियां हुई हैं, उससे जाहिर है कि इन हमलों में कोई बाहरी आदमी नहीं वरन् अंदर के लोग ही शामिल थे।
अपने-अपने हित
अपने हितों के अनुकूल होने पर सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां पीछे नहीं रही हैं। बाबरी मस्जिद मामले को ले लें। भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां चाहती थीं कि बाबरी मस्जिद गिर जाए। दोनों को इससे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में मदद मिल रही थी।
कांग्रेस को लग रहा था कि सारा ठीकरा कल्याण सिंह की सरकार पर फोड़कर अपनी राजनीति चमकाई जा सकती है और भाजपा को लग रहा था उसके हाथ एक उपलब्घि होगी – रामजन्मभूमि को आजाद कराने की। इसलिए दोनों में किसी ने बाबरी मस्जिद को गिरने से रोकने की कोशिश नहीं की। कांग्रेस और भाजपा दोनों में एक अंतर अवश्य है। कांग्रेस दिखावा जरूर कर लेती है एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी होने का।
पर भाजपा ने अपने को हिंदुत्ववादी प्रतीकों से खुले तौर पर जोड़ लिया है। लेकिन इनके राजनीतिक हथकंडों में अपने राजनीतिक हितों के अनुकूल सांप्रदायिक चालों की कोई कमी नहीं होती। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा भी अपने हितों के अनुकूल ही होती है।
उदाहरण के लिए आज कई राज्यों में मुस्लिम आबादी लगभग 20 प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक है। जम्मू-कश्मीर को छोड़ दें तो भी असम, पश्चिम बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत क्रमश: 34.2, 27.1, 26.6 तथा 19.3 प्रतिशत हो गया है।
ऎसे में वे अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकता। राष्ट्रीय स्तर पर भी मुस्लिम आबादी बढ़ने की दर अब भी 24 प्रतिशत से अधिक है। 2001 की जनगणना में यह दर 29 प्रतिशत थी। जबकि आबादी वृद्धि की राष्ट्रीय दर मात्र 18 प्रतिशत है। पर कांग्रेस को इस मुद्दे पर कभी चिंता नहीं होती। मुस्लिम कल्याण की दृष्टि से भी नहीं।
यह बात जगजाहिर है कि जिन समुदायों में शिक्षा, विकास और समृद्धि आती है, उनमें जनसंख्या वृद्धि दर अपने आप गिर जाती है।
यूपीए लाई थी सांप्रदायिक हिंसा बिल
सत्ता में आने के एक साल बाद यूपीए सरकार 2005 में एक सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पुनर्वास) बिल लाई थी, जिसे 2006 में वापस ले लिया गया था। इसमें किसी संगठित हिंसा के प्रयास के जुर्म में भी दंड का प्रावधान था। कर्तव्य निर्वहन में असफल होने पर पुलिस को भी दंडित किए जाने का प्रावधान इसमें था।
हिंसा पर सियासत
एनडीए सरकार ने पिछले वर्ष इस बात का श्रेय लिया था कि 2014 में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें 2013 की तुलना में घट गई थीं। 2013 में जहां 823 सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें दर्ज की गई वहीं 2014 में यह वारदातें घटकर 644 रह गई थीं।
इस तरह से हिंसा में मौतों की संख्या भी 2014 में 133 से घटकर 95 तथा घायलों की संख्या भी 2269 से घटकर 1921 रह गई थी। गौरतलब है कि 2013 में संाप्रदायिक हिंसा की वारदातों के बढ़ने के लिए मुख्य रूप से दो सांप्रदायिक दंगे जिम्मेदार थे। उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर और धुले के महाराष्ट्र में।
इस तरह बढ़ी वारदातें
सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ी वारदातों के बारे में गृहमंत्रालय के अधिकारी कह रहे हैं कि कुछ राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल की सरकारें इन वारदातों को रोक पाने में असमर्थ साबित हो रही हैं।
बिगड़ी तो है देश की फिजा
जरा यह भी सोचिए कि जिस तरह के बयान दिए जा रहे हैं उन्हें सनसनीखेज बनाकर कौन प्रसारित कर रहा है? मीडिया को समझना ही पड़ेगा कि सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले बयानों से किसका भला हो रहा है? क्या इन बयानों के असर को रोकने के लिए ऎसे बयानों से किनारा नहीं किया जा सकता?
यदि आंकड़े यह बता रहे हैं कि इस साल के शुरूआती पांच महीनों के दौरान 2014 में जनवरी से मई के दौरान हुए सांप्रदायिक टकरावों में वृद्धि हुई है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। निस्संदेह देश की सांप्रदायिक फिजा तो बिगड़ ही रही है। जिस तरह की टिप्पणियां और घटनाएं हो रही हैं, उसे देखकर लगता है कि जैसे किसी का कोई नियंत्रण ही नहीं है। जिस पुलिस पर नियंत्रण की जिम्मेदारी होती है, वह खुद उन लोगों का मुंह ताकती रहती है जो ऎसी परिस्थतियों के लिए जिम्मेदार हैं।
जब चरित्र ऎसा हो
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में हाल ही में यह जानकारी आई कि वहां सरकार की ओर से जिला अधिकारियों को शराब बिक्री से होने वाली राजस्व आय को बढ़ाने का आदेश दिया गया है। यहां यह सोचने की बात है कि जब सरकार का चरित्र इस तरह का हो कि वह शराब के जरिए आय बढ़ाने के बारे में सोचती हो तो उससे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि अपराधों पर लगाम लगा सकेगी।
इसी राज्य में जब पुलिस किसी मामले में कार्रवाई करती है तो उसके दिमाग में रहता है कि कहीं आजम खान या मुलायम सिंह इससे नाराज तो नहीं हो जाएंगे। स्थितियां ऎसी हों तो नियंत्रण कैसे किया जा सकेगा?
कोई अंकुश ही नहीं
उत्तर प्रदेश के बारे में यह आम धारणा बनी हुई है कि यहां मुस्लिम समाज और यादव समाज को कोई कुछ नहीं कहेगा। इसी तरह आंध्र प्रदेश से सांसद असदुद्दीन ओवैसी सांप्रदायिक वैमनस्य वाली भाषा बोलते रहते हैं लेकिन कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है। चाहे प्रतिक्रिया स्वरूप ही सही लेकिन साक्षी महाराज जैसे लोग सांप्रयायिक बयान देते हैं तो उनकी सिर्फ आलोचना होकर रह जाती है। उन्हें चुप कराने या रोकने के लिए पार्टी स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
इराक और सीरिया मे आतंक का पर्याय बने इस्लामिक स्टेट का झंडा जम्मू-कश्मीर में लहराया जा रहा हो तो उसे कैसा माहौल कहा जाएगा? हाल ही में कई लोगों ने वह वीडियो क्लिप देखी होगी और अखबारों में भी फोटो छपा कि किस तरह एक ट्रैफिक पुलिस के सिपाही को बेरहमी से सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योंकि उसने एक समुदाय विशेष के व्यक्ति का गलती होने पर चालान काटा था।
शुरूआत में तो कार्रवाई हुई ही नहीं लेकिन जब इस घटना का प्रचार हुआ तो कार्रवाई हो सकी। इसका अर्थ यही है कि देश की फिजा बदल रही है और जिम्मेदार कहे जाने लोगों पर कोई अंकुश ही नहीं है।
मीडिया समझे जिम्मेदारी
जरा यह भी सोचिए कि जिस तरह के बयान दिए जा रहे हैं उन्हें सनसनीखेज बनाकर कौन प्रसारित कर रहा है? मीडिया को समझना ही पड़ेगा कि सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले बयानों से किसका भला हो रहा है? क्या इन बयानों के असर को रोकने के लिए ऎसे बयानों से किनारा नहीं किया जा सकता? यह सही है कि प्रतिस्पर्धा बहुत कड़ी है लेकिन ऎसे बयानों को प्रसारित करना देश हित में तो नहीं है।