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 इतना शोर-शराबा क्यों है भाई?

Published: Aug 19, 2016 02:11:00 am

मैं पेशे से मेडिकल डॉक्टर हूं और मुंबई के उपनगरीय इलाके थाणे में प्रेक्टिस करता हूं। हिंदू होने के कारण बचपन

Medical Doctor

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मैं पेशे से मेडिकल डॉक्टर हूं और मुंबई के उपनगरीय इलाके थाणे में प्रेक्टिस करता हूं। हिंदू होने के कारण बचपन से मैं और मेरा परिवार लगभग सारे त्योहार मनाते चले आ रहे हैं। आज भी होली, दीपावली, नवरात्रि, गणेश पूजा और जन्माष्टमी आदि सभी त्योहार हम पूरी धूमधाम से मनाते हैं। लेकिन, मैंने बचपन से लेकर आज तक कभी यह नहीं सुना कि किसी भी संप्रदाय का कोई त्योहार किसी अन्य को हानि पहुंचाता हो या कोई त्योहार पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता हो।


 इसके विपरीत बचपन में तो हमने कबीर का यह दोहा, ‘कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लयी बनाय। ता चढि़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।Ó जरूर सुना था। कबीर सभी संप्रदायों की रूढिय़ों को तोडऩे का आग्रह करने वाले कवि थे। वे आज होते तो हमारे त्योहारों पर या आम दिनों में भी जिस तरह से लाउड स्पीकरों का दुरुपयोग होता है, उसके बारे में भी ऐसे ही विचार व्यक्त करते।

जरा सोचिए कि देश में त्योहारों को किस तरह से मनाया जा रहा है? नई तकनीक आई तो उसका इस्तेमाल त्योहारों मनाने में होने लगा, अच्छी बात है लेकिन क्या त्योहार का उद्देश्य पूरा हो पा रहा है? हमारे महाराष्ट्र की बात करते हैं। हमारे यहां पर गणेश पूजन होता है। मेरे घर पर भी गणेश जी लेकर आते हैं। हम लोग उन्हें बुद्धि का देवता मानते हैं। लेकिन, गणेश भगवान की शोभा यात्रा पर क्या होता है? किस प्रकार के गानों पर डांस करते शोरगुल करते लोग निकलते हैं? क्या सुना रहे हैं हम भगवान को? मुन्नी बदनाम हुई तेरे लिए या फिर, बीड़ी जलइले जिगर से पिया या मेरे फोटो को यार चिपका ले सैंया…? वह भी सड़कों पर इतने शोर-शराबे वाले भौंडे डांस के साथ, इसे नृत्य कहते हुए तो शर्म ही आती है।

 लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने जिस उद्देश्य से गणेश पूजन की शुरुआत की, क्या वह सफल हो रहा है? किसी को परवाह ही नहीं कि कोई परीक्षा की तैयार कर रहा है या कोई अस्पताल में भर्ती है, उसे इस शोर से घबराहट भी होती होगी। एक दिन की ही तो बात है, इसी बहाने की आड़ में किसी की भी परवाह मत करो। इसी तरह जन्माष्टमी पर भी सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर खूब शोर होता है। दही-हांडी के खेल में बच्चों के हाथ-पैरों की हड्डियां टूटती हैं। कुछ लोगों की मौत तक हो जाती है।

 हर बार इस कार्यक्रम को और जोर-शोर से मनाया जाता है। इनाम रखे जाते हैं। प्रतिस्पर्धा को कड़ा बनाया जाता है। इसी वजह से पूर्व में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि 20 फीट से ऊपर का पिरामिड नहीं बनाया जाएगा। यही नहीं 18 साल से कम उम्र के बच्चे पिरामिड बनाकर दही-हांडी फोडऩे की प्रतिस्पर्धा में भाग नहीं लेंगे। आयोजक इस फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में गए, तो वहां भी इसी फैसले को बरकरार रखा गया।


जहां तक त्योहारों पर होने वाले ध्वनि प्रदूषण की बात है, तो मैंने निजी स्तर पर इस पर अंकुश के लिए मुख्यमंत्री, कॉर्पोरेटरों और स्थानीय निगमा आयुक्त को पत्र लिखे लेकिन कहीं से कोई उचित प्रत्युत्तर नहीं मिला। यदि उनसे मिलकर अपनी बात रखने की कोशिश की तो उल्टे यह सवाल खड़ा किया जाने लगा कि क्या आप हिंदू नहीं है? हिंदुओं के विरुद्ध इस तरह के कदम उठाने की बात आप कैसे कर सकते हैं? निराश होकर 2010 में मुझे न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। इसके अलावा मेरे पास कोई विकल्प भी नहीं था। मैंने न्यायालय के सामने परेशानियों की केवल भूमिका रखी जिसमें कुछ सवाल पूछे।


 उसके बाद बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया है। निस्संदेह, यह तारीफ के काबिल फैसला है। मैं न तो लाउड स्पीकरों का विरोधी हूं, न किसी संप्रदाय का और ना ही किसी राजनीतिक दल का। मैंने अपनी बात महाराष्ट्र के त्योहारों के संदर्भ में उठाई है लेकिन त्योहार तो पूरे देश में सभी संप्रदायों के लोग मनाते हैं और सभी जगहों पर हाल एक सा ही है। मस्जिदों से भी लाउड स्पीकरों के जरिए ऐसा ही शोर उठता है।


 यदि रोजाना या किसी विशेष अवसर पर लाउड स्पीकरों के जरिए प्रार्थना से उठते होते शोर के कारण किसी अन्य को कोई परेशानी होती है तो ऐसी प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को उदाहरण मानते हुए, इसे पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए। न्यायालय ने साफ कहा है कि लाउड स्पीकर लगाना किसी भी धर्म का मौलिक अधिकार नहीं है। मुझसे ऐसे भी सवाल किए जा रहे हैं कि दही-हांडी के मामले में ही क्यों, जान का खतरा तो ओलंपिक खेलों में भी होता है, उसे भी रुकवा दें। लेकिन, ओलंपिक खेलों के लिए वर्षों तक अभ्यास भी किया जाता है।


 ऐसा दही-हांडी प्रतिस्पर्धा में नहीं होता। एक बड़ी परेशानी यह है, ऐसे मामलों में राजनीति घुस गई है। हर कॉर्पोरेटर अपनी ओर से भगवान गणेश की स्थापना कराता है और फिर शोरगुल के साथ उनकी शोभायात्रा भी निकालता है। हमारा मकसद त्योहार मनाने में कोई हस्तक्षेप करना नहीं है बल्कि हम तो यह कह रहे हैं कि हमें सुसंस्कृत तरीके से औरों की सुविधा-असुविधा का ध्यान रखकर त्योहार मनाना सीखना चाहिए। शुरुआत में कुछ तकलीफ होगी पर दीर्घकाल में बहुत सुकून मिलेगा।

डॉ. महेंद्र बेड़ेकर सामाजिक कार्यकर्ता
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