scriptकानून का जोर क्यों? | Why the emphasis of the law? | Patrika News

कानून का जोर क्यों?

Published: Nov 30, 2016 10:36:00 pm

देश की शीर्ष अदालत का फैसला सिर-माथे लेकिन कानून के दम पर राष्ट्रगान का सम्मान करवाना देश के

Supreme court

Supreme court

देश की शीर्ष अदालत का फैसला सिर-माथे लेकिन कानून के दम पर राष्ट्रगान का सम्मान करवाना देश के लिए किसी शर्मनाक पहलू से कम नहीं माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में फिल्म शुरू होने से पहले सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने को अनिवार्य कर दिया है।

साथ ही हिदायत दी गई है कि राष्ट्रगान बजने के दौरान सभी दर्शकों को खड़ा रहना होगा। राष्ट्रगान अथवा राष्ट्रध्वज का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का दायित्व है लेकिन इसके लिए किसी अदालत के हस्तक्षेप की नौबत क्यों आनी चाहिए? सालों पहले फिल्म के समापन पर राष्ट्रगान बजाने की परम्परा थी। धीरे-धीरे ये परम्परा खत्म हो गई। कारण भी एकमात्र यही था कि राष्ट्रगान के समय लोग खड़े रहकर उसका सम्मान नहीं करते थे।

 राष्ट्रगान बजने के समय दर्शक सिनेमाघरों से बाहर निकलने लगते थे। सुप्रीम कोर्ट ने अब फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य कर दिया है। लेकिन अहम सवाल वही कि क्या राष्ट्रगान बजने के दौरान दर्शक इसको यथोचित सम्मान देंगे? फिल्म शुरू होने से पहले दर्शक सिनेमाघरों में आते-जाते रहते हैं। राष्ट्रगान बजने के दौरान सिनेमाघर में प्रवेश करने वाले दर्शक कैसे खड़े रह पाएंगे? और खड़े नहीं रहे तो इस असम्मान का जिम्मेदार किसे माना जाएगा? अदालत इस अहम मुद्दे पर फैसला सुनाने से पहले गहन विचार-विमर्श करती तो बेहतर रहता।

 सिनेमाघरों की बात तो दूर स्वाधीनता दिवस-गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रगान बजने के दौरान भी लोग खड़े होने की जरूरत नहीं समझते। फिर ऐसे फैसले को लागू कराना कितना मुश्किल होगा। जो दर्शक राष्ट्रगान बजने के समय खड़े नहीं होंगे उनके खिलाफ कौन कार्रवाई करेगा और कैसे? राष्ट्रभक्ति की भावना थोपने से नहीं बल्कि आंतरिक भाव से पैदा होती है। जिसे राष्ट्रगान-राष्ट्रध्वज को सम्मान देना है उसे कानून के डर की जरूरत नहीं। लेकिन जो इसका सम्मान करना नहीं चाहता उसे कानून के जोर से डराया भी नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट का फैसला अच्छा है लेकिन उसकी पालना को लेकर संदेह जरूर है।

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