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फौज का बदलता दौर

Published: Mar 20, 2015 11:11:00 pm

एक वक्त था, जब सिर्फ सैनिकों की बड़ी तादाद के बूते ही मैदान ए जंग में उतरा जाता था।सारी लड़ाई मोर्चे पर तैनात

World Military Day

World Military Day

एक वक्त था, जब सिर्फ सैनिकों की बड़ी तादाद के बूते ही मैदान ए जंग में उतरा जाता था। सारी लड़ाई मोर्चे पर तैनात सैनिकों की बहादुरी पर ही टिकी होती थी। पर वक्त बदला, सैनिकों के हाथ में नए बंदूक-हथियार आए। पैदल भागने की बजाय अब सैनिक टैंकों पर सवार होकर जंग लड़ने लगे। मैदानी जंग के साथ-साथ आसमानी लड़ाई भी होने लगी। युद्धक विमानों से हमले किए जाने लगे। यानी सिर्फ मैदान पर तैनात सैनिक पर निर्भरता कम होने लगी और तकनीक-उपकरण आधारित लड़ाई पर जोर दिया जाने लगा। मौजूदा दौर में तो मोर्चे पर बिना सैनिक भेजे भी लड़ाई लड़ी जाने लगी है। जानिए सेना और युद्ध के बदलते स्वरूप पर क्या कह रहे हैं जानकार ।

अब बहादुरी की लड़ाई नहीं रही
मारूफ रजा, रक्षा एवं रणनीति विशेषज्ञ
आधुनिक दौर में सेना और युद्ध के तरीके बिलकुल बदल गए हैं। इसके संकेत पहले विश्व युद्ध में दिखे थे। उस वक्त चार-पांच खास पहलू नजर आए थे, जिन्होंने अगले सौ साल के लिए लड़ाई का रूख बदल दिया था। पहले विश्व युद्ध में पहली बार मशीनगन का इस्तेमाल हुआ। इससे एक सैनिक अपनी ट्रिगर दबाकर सैंकड़ों दुश्मनों को मार सकता था।

इससे पहले एक गोली से एक दुश्मन मरता था, उसके लिए भी अच्छा निशाना होना जरूरी था। दूसरी चीज रेलवे का इस्तेमाल सामने आया। हमारे देश में भी जब युद्ध की स्थिति बनी तो रेलवे का परिवहन और साजो-सामान पहुंचाने के लिए इस्तेमाल होने लगा। तीसरी बात संचार में क्रांति की रही। पहले टेलीग्राफ और बाद में इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन का इस्तेमाल होने लगा। इससे सैनिकों को युद्ध सम्बंधी संदेश पहुंचाने में मदद मिलने लगी।

इससे लड़ाई की गति बढ़ गई। चौथी बात, टैंकों का इस्तेमाल होने लगा। मोर्चे पर रहने वाले सैनिकों को इससे बड़ी मदद मिली। पर ज्यों-ज्यों आधुनिकीकरण हुआ त्यों-त्यों जवानों की काबिलियत की बजाय तकनीक पर जोर हो गया। उपकरणों से लड़ाई लड़ी जाने लगी। सैनिकों का प्रशिक्षण भी तकनीक आधारित ज्यादा हो गया।


द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 70 फीसदी लड़ाइयां इन्सर्जेसी या बहुत छोटे स्तर पर हुई हैं। इसी दौर में हवाई ताकत पर भी बहुत जोर दिया गया। चाहे वियतनाम की लड़ाई हो या रूस की अफगानिस्तान में या मलेशियाई इन्सर्जेसी हो या इजरायल-फलस्तीन की लड़ाई या भारत की श््रीलंका से लड़ाई हो, ये ज्यादातर इन्सर्जेसी की लड़ाइयां थी। यानी एक ओर तो फौज थी, दूसरी और गुरिल्लाई लोग थे। इसमें देखने में ये आया कि इन लोगों ने बड़ी-बड़ी सेनाओं को घुटनों पर उतार दिया। यानी यह साबित हुआ कि लड़ाइयां सिर्फ तकनीक और उन्नत उपकरणों से ही नहीं जीती जा सकतीं।


पिछले बीस साल से आतंककारियों के साथ लड़ाई हो रही है। यह लड़ाई तो शहरों तक उतर आई है। सेना इसमें दखल नहीं देना चाहती है पर ये बड़े-बड़े देशों के समक्ष परेशानी बने हुए हैं। पर संकट ये है कि भारत जैसी सेनाएं अभी उस लड़ाई के लिए तैयार ही हो रही हैं। परमाणु हथियार का डर दिखाकर हमले किए जा रहे हैं। जैसे भारत के खिलाफ पाकिस्तान आतंकवाद जारी रखे हुए हैं। साथ ही इंटरनेट और सूचना यंत्रों पर निर्भरता होने से साइबर हमले होने लगे हैं। जिसके लिए ज्यादातर सेनाएं तैयार नहीं हैं। अब पुराने जमाने के सैनिकों की तरह बहादुरों की लड़ाई नहीं रही। अब तो बुजदिलों की लड़ाई होने लगी है, जो खुद को होशियार समझते हैं।


आधुनिक हथियारों की जरूरत
से.नि. मे.ज. अफसर करीम, रक्षा विशेषज्ञ
इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि आज हम और हमारा परिवार सेना की वजह से घर में महफूज बैठे हैं। लेकिन, वर्तमान में हमारी चिंता का विषय यह है कि हमारी सेना अन्य देशों की सेनाओं के मुकाबले कितनी महफूज है। हमारी सेना के पास मनोबल की कोई कमी नहीं है। इसके पास जज्बा है देश के लिए कर गुजरने का, पर केवल यही तो काफी नहीं है। मुकाबले के लिए उसे भी उतना ही दक्ष, तकनीकी तौर पर सशक्त और अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होना होगा।

आधुनिकीकरण की जरूरत
पड़ोसी देशों के मुकाबले अत्याधुनिक हथियारों के मामले में हम काफी पीछे रह गए हैं। न तो हमारे पास बेहतर मिसाइलें हैं और ना ही टैंक हैं। इनके साथ हम चीन से तो छोडिए पाकिस्तान से भी मुकाबला नहीं कर सकते हैं। केवल थल सेना का हाल ही ऎसा है, ऎसा नहीं है। हमारी वायुसेना के पास भी बेहतर लड़ाकू हवाई जहाज नहीं है। नौसेना के पास अत्याधुनिक पनडुब्बियां नहीं हैं। इसके अलावा हमारे पास जो साधन हैं, वे दिन की लड़ाई के लिए तो पर्याप्त हो सकते हैं लेकिन इनसे रात की लड़ाई में बेहद मुश्किल खड़ी हो सकती है। रात की लड़ाई के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं है। संसाधनों को जुटाने के साथ हमें सैनिकों को भी नई तकनीक से प्रशिक्षित कराना होगा।

ढांचागत सुविधाएं बढ़ाएं
हमारी सीमाओं की सुरक्षा मजबूत करने लिए हमारी फौज को आधारभूत सुविधाएं मुहैया करानी होंगी। उत्तरी सीमा पर स्थिति अच्छी नहीं है। चीन और पाकिस्तान सीमा पर पर्याप्त सड़कें नहीं हैं। जरा सोचिये कि यदि सेना को सही समय पर राशन ना मिले तो क्या होगा? सेना को समय पर हथियार, गोला-बारूद आदि सामग्री नहीं पहुंचाई जा सके या फिर देर से पहुंचे तो दुश्मन हमारा क्या हाल करेगा? हमारे पास मुकाबला कर सकने वाले अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त एयरफील्ड नहीं हैं। लड़ाई केवल जमीन और हवा में ही नहीं होती है। समुद्री सीमा की सुरक्षा भी बहुत जरूरी है।

सेना में सेवा के हालात
हम ऎसा क्यों मानकर चलते हैं कि सेना में कार्यरत लोगों का पारिवारिक जीवन हमेशा ही परेशानियों में गुजरेगा। उनके परिवारों को भी गुणवत्तापूर्ण जीवन मिलना ही चाहिए। अन्य सेवाओं के मुकाबले हमारे सैनिक जल्दी सेवानिवृत्त हो जाते हैं। सेवानिवृत्ति बाद सैनिकों को सुरक्षित भविष्य मिले, इसके लिए उचित व्यवस्था जरूरी है। सैन्य पेंशन इतनी अधिक नहीं होती कि वे परिवार की गुजर-बसर कर सकें। यदि सेना में नौकरी के लिए युवाओं का रूझान बनाये रखना है तो इसके लिए सेवानिवृत्ति के बाद के गौरवपूर्ण जीवन-यापन की व्यवस्था हो।

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