कुछ लेखकों को यह बीमारी भरी जवानी में ही घेर लेती है। एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ नहीं कि उसे दर-दर फेंकना शुरू कर देते हैं। अजी,मेरी नई रचना आई है। आप इसे पढें और इस पर कुछ लिखें भी। लोग शर्माशर्मी में किताब ले लेते हैं तो फिर फोन आने शुरू हो जाते हैं- आपने देखी किताब, कैसी लगी? शुरू में आदमी बहाने बनाता है- भाई अभी दूसरे कामों में व्यस्त हूं।
देख नहीं पाया। तुम्हारी पुस्तक तसल्ली से पढूंगा। पांच-सात दिन बीतते-बीतते फिर फोन। अब आप झक मार कर किताब पढ़ते हैं तो तीन कविताओं के बाद लगता है कि यह तो पढ़ी हुई सी लग रही है। थोड़ा जोर डालते हैं तो समझ आता है- अरे यह तो फलां कवि की तर्ज पर लिखी गई है।
अब आप क्या करें?सामने वाला फोन पर फोन कर ढिठज्ञई पर उतरा हुआ है और अंत में आपको चार लाइनें लिखनी ही पड़ती हंै। मूल्यांकन की बीमारी नवोदितों में ही नहीं बुजुर्गों में भी होती है। अक्सर जताते रहते हैं कि हम तो महान थे लेकिन ढंग से मूल्यांकन ही नहीं हुआ।
क्षमा करें, हम न अपनी पतली पुस्तकों मूल्यांकन करना चाहते हैं न तुकबंदियों का। हमें तो खुद के मूल्यांकन की बीमारी है। जिन्दगी में साठ बसन्त देख लिए। कुछ तो पता चले कि किया क्या है? वैसे इस मामले में खिलाड़ी और नेता फिट होते हैं। खिलाडियों का मूल्यांकन उनका प्रदर्शन और नेताओं का चुनाव कर देते हैं।
अभिनेता-अभिनेत्रियों का मूल्यांकन हर शुक्रवार को लगने वाली फिल्मों की “विंडो रिपोर्ट” कर देती है। हमारे जैसा मामूली आदमी कहां सिर मारे। किससे कहे कि मेरा मूल्यांकन तो करो।
आम आदमी का मूल्यांकन कभी नहीं हो पाता। वह बिना दाम निकाले ही मर जाता है। हम नहीं चाहते कि जब इस फानी दुनिया से कूच करें तो पता ही न हो कि असल में हमारी मार्केट वैल्यू क्या थी? बस इसी टेंशन में दिन कट रहे हैं। क्या अल्लाह का बंदा, राम का भक्त कोई है जो मूल्यांकन में कुछ मदद करेगा।
नहीं तो अंत में एक ही तरीका बचता है स्व मूल्यांकन का। लोग अपने हाथों से क्या-क्या नहीं करते। हम अपना मूल्यांकन खुद ही कर लेंगे। पर आदमी अपनी कीमत ठीक से नहीं लगा पाता। या तो वह खुद को फन्ने खां समझ बैठता है या निरा भोंदू। बताएं क्या करें? – राही