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पदक बेचने को मजबूर पदक विजेता, आखिर कब तक ?

सरकार ने वादा खिलाफी की है।जिसके कारण मुझे अपने पिता का मेडल बेचने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि अकादमी पिताजी का सपना थी और उसको हर हाल मैं पूरा करना है।

Jul 26, 2017 / 02:21 pm

Kuldeep

KHASABA JADHAV

KHASABA JADHAV

नई दिल्ली : ओलम्पिक मैं पदक जीतना किसी खिलाडी के लिए कितना मायने रखता है ये वो ही जानता है जिसने कभी ओलम्पिक जैसे किसी आयोजन मैं भाग लिया हो।भारत जैसे देश के खिलाडियों को जहां ओलम्पिक जैसे आयोजन मैं भाग लेने के लाले पद जाते हों और 1-2 पदक जीतने के बाद पूरा देश उन्हें अपने सर पर बिठा लेता हो तब समझा जा सकता है की भारत जैसे देश के लिए ओलम्पिक मैं खेलना कितना ख़ास होगा।ऐसे मैं अगर कोई एथलीट पदक जीतता है तो उसकी अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
देश के लिए खेलने वाले तमाम खिलाडियों ने पदक जीते लेकिन किसी को याद भी नहीं होगा कि ओलम्पिक मैं पहला पदक किसने जीता, आज वो जिन्दा है या नहीं और अगर है तो क्या कर रहा है? 
आइये हम बताते हैं कि देश का पहला पदक विजेता क्या कर रहा? 
पहला पदक जीतने वाले ओलिंपियन खाशाबा जाधव ने 1952 फिनलैंड ओलम्पिक मैं कुश्ती के लिए ब्रांज मेडल जीता था।लेकिन आज वे अपना पदक नीलाम कर रहे हैं।खाशाबा जाधव को अपना पदक नीलम करने की नौबत तब आई जब सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन के बाद भी काम पूरा नहीं हुआ।
महारष्ट्र सरकार ने 2009 दादा साहब के नाम पर एक आकदमी बनाने का प्रस्ताव दिया था जिसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है।अकादमी के निर्माण के लिए 2013 मैं सरकार द्वारा 1.58 करोड़ रूपये मंजूर किये गए थे।दो बार टेंडर भी निकाला गया लेकिन कुछ नहीं हुआ और सबकुछ पहले जैसा है। दादा साहब के पुत्र रंजीत जाधव ने सरकार को कई पात्र लिखे लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
सरकार की वादाखिलाफी 
सरकार ने वादा खिलाफी की है।जिसके कारण मुझे अपने पिता का मेडल बेचने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि अकादमी पिताजी का सपना थी और उसको हर हाल मैं पूरा करना है।अगर सरकार के पैसे नहीं हैं तो मैं पिताजी का मेडल देता हूं उसको नीलम कर पैसे हासिल कर लें और अकादमी का निर्माण करवा दें।
रंजीत ने सरकार पर उनके पिताजी के नाम से आयोजित की जाने वाली नेशनल चैम्पियनशिप को भी बंद करने का आरोप लगाया। सरकार ने यह प्रतियोगिता 1997 मैं शुरू की थी जिसे 2015 मैं बंद कर दिया गया। रंजीत चाहते हैं कि चैम्पियनशिप को फिर से शुरू किया जाये।
कोल्हापुर महाराज ने उठाया था ओलम्पिक का खर्च दादा साहब अपने पहले ओलम्पिक मैं कोई पदक नहीं जीत पाए थे लेकिन 1952 के फिनलैंड ओलम्पिक मैं ब्रोंज मैडल जीता था। 1952 के ओलम्पिक मई जाने के लिए दादा साहब के पास पैसे नहीं थे जिसके लिए उन्होंने उधर लिया अपना घर गिरवी रखा तब जाकर वो ओलम्पिक मैं खेलने के लिए गए।
बन रही फिल्म 
दादा साहब के जीवन पर एक फिल्म बन रही है जिसमें रीतेश देशमुख दादा साहब का किरदार निभा रहे हैं। वही इस फिल्म का निर्माण भी कर रहे हैं।इसके अलावा राइटर संजय सुधाने ने उन पर वीर के.डी. जाधव के नाम से किताब भी लिखी है।
अपने प्रिंसिपल को गिरवी रखे घर को वापस लेने के लिए उन्होंने कुश्ती लड़ी जिससे मिले पैसों से उन्होंने अपना घर वापस लिया।
पुलिस डिपार्टमेंट मैं कोटा 
 पुलिस डिपार्टमेंट में स्पोर्ट्स कोटा जाधव के ओलिंपिक में मेडल जीतने के बाद ही शुरू हुआ था।1955 में जाधव को मुंबई पुलिस में स्पोर्ट्स कोटे से सब-इंस्पेक्टर की नौकरी मिली। कई सालों तक वे इसी पोस्ट पर बने रहे। 1982 में उन्हें छह महीने के लिए असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर का पद मिला था।
मरने के बाद मिले पुरष्कार 
दादासाहब जाधव को 1983 में फाय फाउंडेशन ने “जीवन गौरव” अवॉर्ड से सम्मानित किया। 1990 में इन्हें मेघनाथ नागेश्वर अवॉर्ड से (मरणोपरांत) नवाजा गया। उनकी मौत के बाद 1993 में शिवाजी छत्रपति पुरस्कार और 2001 में भारत सरकार ने उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया।

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