243 सदस्यीय विधानसभा में आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है। वहीं जेडीयू के पास 71 सीटें है, तो बीजेपी के पास 58 सीटें हैं। वहीं कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं।
पटना: बिहार में राजद और जदयू के बीच गठबंधन की खाई लगातार गहरी होती जा रही है जिससे राजनीतिक गलियारों में गठबंधन के टूटने की चर्चा जोरों पर है। शनिवार को मुख्यमंत्री
नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को एक मंच पर साथ आना था, लेकिन महागठबंधन में पड़ी इस गांठ के बीच तेजस्वी इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। यहां पहले से तेजस्वी के नेमप्लेट पर पर्दा डालकर रखा गया था, लेकिन बाद में वह नेमप्लेट ही हटा दी गई।
जेडीयू के अल्टीमेटम की समय-सीमा खत्म
जेडीयू ने मंगलवार को हुई प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में अपने सहयोगी दल राजद को तेजस्वी पर फैसला लेने के लिए 4 दिन का अल्टीमेटम दिया था, जिसका आज आखिरी दिन है। हालांकि जेडीयू के इस अल्टीमेटम पर आरजेडी की तरफ से कोई गंभीरता नहीं दिखी। वहीं आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद ने भी यह साफ कर दिया कि डिप्टी सीएम पोस्ट से उनके बेटे तेजस्वी के इस्तीफे का सवाल ही नहीं उठता।
रविवार को बैठक कर नीतीश लेंगे फैसला
आरजेडी की तरफ से इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद सीएम
नीतीश कुमार ने रविवार को मुख्यमंत्री आवास पर जेडीयू विधायकों की बैठक बुलाई है। माना जा रहा है कि इस बैठक में आरजेडी के साथ आगे के रिश्तों पर फैसला लिया जाएगा।
क्या है बिहार का सियासी गणित
बिहार के सत्ता समीकरण पर नजर डालें, तो 243 सदस्यीय विधानसभा में आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है। वहीं जेडीयू के पास 71 सीटें है, तो बीजेपी के पास 58 सीटें हैं। वहीं कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं। सीटों के मामले में दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद
नीतीश कुमार बिहार के सीएम बने। ऐसे में नीतीश अगर आरजेडी से नाता तोड़ बीजेपी से हाथ मिलाते हैं, तब भी वह 129 सीटों (71+58) के साथ बहुमत का आंकड़ा पार कर सत्ता पर काबिज रहेंगे।
बिहार में जेडीयू और आरजेडी के बीच विश्वास की डोर कमजोर पड़ती जा रही है। अगर बिहार में महागठबंधन में बिखराव होता है तो इसका नीतीश और लालू को कितना फायदा और कितना नुकसान होगा-
1. लालू यादव के साथ बने रहने में
नीतीश कुमार को एक फायदा है। क्योंकि लालू यादव जिस तरह से घोटालों के कई मामलों में घिरे हैं इससे उनकी निजी सक्रिय राजनीति की राह आगे भी आसान नहीं है। ऐसे में नीतीश हमेशा आरजेडी के साथ गठबंधन में नेतृत्व की स्थिति में रहेंगे, और इससे लालू को भी शायद कोई आपत्ति नहीं है और नहीं होगी। पिछले दो सालों में ये दिखा भी है कि लालू यादव ने कभी नीतीश के फैसलों पर सवाल नहीं उठाया।
2. अगर
नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग होते हैं तो उनके सामने विकल्प के तौर पर बीजेपी है। नीतीश बीजेपी के समर्थन से सत्ता में बने रहेंगे। लेकिन क्या वो ‘मोदी युग’ में बीजेपी के साथ होकर अपने फैसलों को बिहार में लागू कर पाएंगे। क्योंकि हाल के दिनों में जिन राज्यों में बीजेपी क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता में भागीदार रही, वहां क्षेत्रीय पार्टियां कमजोर हुई हैं। ऐसे में नीतीश के सामने बीजेपी के साथ गठबंधन चलाने के अलावा अपनी राजनीतिक जमीन को भी बरकरार रखने की चुनौती होगी।
3. नीतीश की ओर क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा कांग्रेस भी उम्मीद की नजर से देख रही है, क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से जिस तरह कांग्रेस दिनों-दिन कमजोर पड़ती जा रही है ऐसे में बिहार के बाहर भी नीतीश की राजनीतिक पकड़ और मजबूत हो सकती है। यही नहीं, अगर बीजेपी और
नरेंद्र मोदी के मुकाबले में खुलकर नीतीश सामने आते हैं तो उन्हें तमाम क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस का भी साथ मिल सकता है।
4. जिस तरह से
नीतीश कुमार की अगुवाई में महागठबंधन की सरकार ने बिहार में दो साल का सफर बिना किसी विवाद के तय किया है, उससे
नीतीश कुमार का बिहार के बाहर भी कद बढ़ा है। दूसरे गैर-बीजेपी शासित राज्यों में नीतीश-लालू गठबंधन की तरह क्षेत्रीय पार्टियां एक मंच पर आने की सोच रही थीं, ऐसे में नीतीश का अलग होने का फैसला दूसरे राज्यों में महागठबंधन की नींव पड़ने से पहले खत्म कर देगा। खासकर उत्तर प्रदेश में इसका ज्यादा असर पड़ेगा।
5. बिहार में भले ही आरेजडी के 80 विधायक हैं, लेकिन लालू यादव आखिरी वक्त तक महागठबंधन को बचाने की कोशिश करेंगे। हालांकि वो फिलहाल तेजस्वी के इस्तीफे पर समझौते से इनकार कर रहे हैं। लेकिन उन्हें पता है कि अगर नीतीश गठबंधन से अलग होते हैं तो आरजेडी के राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो सकता है।