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छत्तीसगढ़ का खास है यह इलाका… यहां हर दूसरा शख़्स है शायर

locationरायपुरPublished: Jul 20, 2017 12:06:00 am

Submitted by:

Ashish Gupta

यदि आपको शेरों-शायरी का शौक है तो थोड़ा सा वक्त निकालकर कभी रायपुर की एक बस्ती मोमिनपारा में तशरीफ़ ज़रूर लाएं।

Mominpara of poets township

Mominpara of poets township

रायपुर/राजकुमार सोनी. यदि आपको शेरों-शायरी का शौक है तो थोड़ा सा वक्त निकालकर कभी रायपुर की एक बस्ती मोमिनपारा में तशरीफ़ ज़रूर लाएं। लगभग 14 हजार की आबादी वाले मोमिनपारा का हर दूसरा या तीसरा बाशिंदा शायर है। कहने को यह बात थोड़ी अजीब सी लग सकती है, लेकिन हकीकत यहीं है कि यहां के लोग गुरबत में ज़रूर जीते हैं मगर शायरी के मामले में मालामाल है। इस बस्ती के एक मरहूम शायर रज़ा हैदरी की पहचान तो देश व्यापी रही है जबकि बहुत से लोग एक दूसरे को सुनते-समझते और उनके शार्गिद बनकर शायर हो गए हैं। ऐसा भी नहीं है कि जो लोग दोस्ती-यारी या उस्तादों की सरपरस्ती में शायर बने हैं उनका सृजन हल्का या कमज़ोर हैं। बस्ती के बारे में यह बात मशहूर है कि वहां शायर ही पैदा होते हैं इसलिए हर शायर की शायरी का अंदाज़ बेजोड़ और ज़बरदस्त ही रहता है। शायर नया हो पुराना… उन्हें सुनते हुए आप भी गुनगुना उठेंगे- ‘इक न इक शमा अंधेरे में जलाए रखिए… सुबह होने को है माहौल बनाए रखिए।’

मोमिन का मतलब पाक-साफ

बस्ती का नाम मोमिन पारा क्यों पड़ा… इसके पीछे भी एक कहानी है। एक बुर्जुग शायर अकबर अली बताते हैं-लगभग दो सौ साल पहले उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद और जलालपुर में अकाल पड़ा था तब वहां के जुलाहे ऱोजी-रोटी की तलाश में एक शहर से दूसरे शहर होते हुए रायपुर आ गए थे। जुलाहे मुफ़लिसी में भी खु²ारी की लौ बचाकर ‘भीनी-भीनी चदरिया बिनने वाले कबीर की राह पर चला करते थे। कपड़ों को बुनने की प्रक्रिया के दौरान वे कल्पना की उड़ान भी भरते और यथार्थ की तपन से भी दो-दो हाथ कर लिया करते थे। कहा तो यह भी जाता है कि जब किसी मोहल्ले में विवाद की स्थिति पैदा होती थी तो जुलाहों को मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर के एक प्रमुख पात्र अलगू चौधरी की भूमिका का निर्वाह करने के लिए न्यौता दिया जाता था। अकबर अली कहते हैं- मोमिन का मतलब होता है- पाक-साफ…यानी जो किसी भी तरह के गुनाह में शरीक न हो, सो इस बस्ती की शायरी का एक पूरा दौर इस जज़्बे पर है कि इंसान भलाई का काम करने के लिए ही दुनिया में आया है…गुनाह करने के लिए नहीं।

खुशी तेरी मंजिल… मैं ग़म का मुसाफिऱ (रजा हैदरी)

मोमिनपारा के जितने भी शायर हैं वे मरहूम रज़ा हैदरी का नाम बड़े अदब के साथ लेते हैं। तंगदस्ती में जीने वाले रज़ा के बारे में कई किस्से मशहूर है। काविश हैदरी जो रज़ा के भाई और खुद भी एक बड़े शायर हैं ,बताते हैं कि रज़ा महज एक कप चाय और एक चारमीनार सिगरेट पीते-पीते ही पूरी गज़़़ल लिख दिया करते थे। रज़ा की नज़्मों और गज़़़लों को कई मशहूर कव्वालों ने गाया भी है। काविश बताते हैं कि एक बार टाटा नगर में जॉनी बाबू और अज़ीज नाज़ां के बीच कव्वाली का जंगी मुकाबला था तब जानी बाबू रज़ा को अपने साथ ले गए थे। उन दिनों अज़ीज नाज़ां की एक कव्वाली ‘झूम बराबर झूम शराबी’ जो आईएस जौहर की फि ल्म ‘फाइव रायफल्स’ के लिए गायी गई थी की धूम मची हुई थी। अज़ीज नाज़ां ने जैसे ही कव्वाली गायी लोग झूम उठे, लेकिन उसी मंच पर रज़ा हैदरी ने जानी बाबू को लिखकर दिया- ‘छोड़ दे पीना छोड़ शराबी’ नाज़ां को उम्मीद नहीं थी कि मुकाबले में ज़ोरदार ढंग से जवाब आएगा। टाटा नगर के मंच से ही पूरे देश में यह बहस छिड़ी कि शराब पीने से तबीयत में रवानी आती है या जि़ंदगी गंवानी पड़ती है। काविश बताते हैं कि टाटा नगर के मंच पर नाज़ां ने आरोप लगाया कि जानी बाबू के साथ रहने वाला हर साजि़दा शराबखोरी में लिप्त है। जानी बाबू ने भी जवाब दिया- वे शराब पीने से होने वाले नुकसान का अनुभव करने के बाद ही बता रहे हैं कि शराब क्यों नहीं पीनी चाहिए।

शायर मोहसिन अली बताते हैं कि रज़ा हैदरी ने कुछ सालों तक मुबंई की खाक भी छानी और कुछ फिल्मों के लिए कव्वाली भी लिखी। वर्ष 1983 में फिल्म अभिनेता राकेश रोशन की एक फिल्म ‘बेगुनाह कैदी’ शहर के अमरदीप टाकीज में रीलीज हुई तब अखबारों में यह विज्ञापन छपा कि फिल्म में मोमिनपारा के शायर रज़ा हैदरी ने कव्वाली लिखी है। रज़ा के छोटे बेटे इरतिका कहते हैं- ‘ मेरे वालिद किसी को यूज करना नहीं जानते थे। यहीं एक वजह थीं कि लोगों ने उनसे जो कुछ लिखवाया वे लिखकर देते चले गए। उनकी कई नज़्मों पर दूसरों ने अपने नाम का लेबल लगा लिया और मशहूर हो गए। गुरबत को ही गहना मानकर दुनिया को अलविदा कहने वाले रज़ा का एक शेर है-

ये सच है कल तो मर जाऊंगा मैं दो हिचकियां लेकर

अभी जिंदा हूं लेकिन जि़ंदगी की तल्खिय़ां लेकर
सुकूं की छांव मिल जाएंगी तो डेरा दूं अपना

मैं बंजारा हूं फिरता हूं गमों की गठरियां लेकर।

इरतिका कहते हैं- वालिद साहब गम के मुसाफिऱ थे और अपने गम के साथ जमाने से कूच कर गए , लेकिन हम सबको यह सिखा गए कि आदमी धन-दौलत से नहीं अपने किरदार से बड़ा होता है। अपने वालिद को इरतिका कुछ इस तरह याद करते हैं- जहां इंसान की पहचान लिबासों से करें, ऐसी महफि़ल में रज़ा भूल के जाया न करो

पैसों की मांग नहीं करते शायर

मोमिनपारा के शायरों की एक खास बात यह है कि वे किसी भी आयोजन में शिरकत करने लिए आयोजकों से पैसों की मांग नहीं करते। यदि किसी आयोजक ने पैसे दे दिए तो ठीक अन्यथा पैसों के लिए तकज़ा नहीं करते। शायर नशिस्तों (काव्य गोष्ठियों) में उपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं तो मनकबत (रचनाओं के जरिए व्यक्तित्व की बात), सलाम ( इमाम हुसैन के बारे में ) कसीदा ( तारीफ ), हमद ( खुदा की शान में ), नाअ़त ( मोहम्मद पैगम्बर की स्तुति ) मुशायरों और महफिलों में भी शिरकत करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि यदि किसी दूसरे प्रदेश से किसी शायर ने ‘मिसरेÓ पर गज़़ल पूरी करने की चुनौती सामने रखी तो फिर यहां के शायर मिसरे पर कम से कम छह शेर की गज़़ल बनाकर उसे पढऩे के लिए दूसरे शहरों में भी जाते हैं। मोमिनपारा में मूसा नाम की एक बेहद पुरानी होटल है। यहां पहले चार आने में चाय मिला करती थी, लेकिन अब भी चाय की कीमत ज्यादा नहीं है। दो रुपए में चाय मिलती है और पांच रुपए में समोसा। इस होटल में कोई न कोई शायर हमेशा मिलता है। शायरों के बीच रहकर होटल के संचालक मोहम्मद यूसा और वहां कार्यरत कर्मचारी भी शायरी करने लगे हैं।

mominpara


शायरों के उस्ताद – काविश हैदरी

काविश हैदरी की पहचान एक उस्ताद के तौर पर होती है। मोमिनपारा के जितने भी छोटे-बड़े शायर हैं वे यह मानते हैं कि अपने भाई रजा हैदरी की तरह काविश हैदरी भी शायरों को बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। उर्दू की बेहतर सेवा के लिए सामाजिक समरसता, चक्रधर, मुस्तफा हुसैन मुश्फिक, हाजी हसन अली सहित अन्य कई सम्मान हासिल करने काविश हैदरी ने रोजी-रोटी कमाने के लिए कुछ अखबारों में नौकरियां भी की, लेकिन अब केवल मुशायरों में ही आना-जाना करते हैं। मोमिनपारा के ज्यादातर लोग शायरी क्यों करते हैं पूछे जाने पर काविश कहते हैं, ‘मोहर्रम के बाद साल भर कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू हो जाता है। लोग कभी करबला की घटना पर लिखने वाले ‘मीर अनीस’ और ‘मिर्जा दबीर’ की रचनाओं से वाकिफ होते हैं तो कभी उन्हें देश-दुनिया के मशहूर शायरों को सुनने का मौका मिलता है। पूरी बस्ती का माहौल हमेशा शायराना ही बना रहता है जिस वजह से हर सवाल का जवाब शायरी में ही ढूंढ़ा जाता है।’ काविश शायरी को खुदा की नेमत मानते हैं। अपनी एक शायरी के जरिए वे कहते हैं-

किस्मत के लिक्खे को आखिर कैसे कोई मिटाएगा

कोशिश करते-करते इक दिन कागज ही फट जाएगा।
तुझको पागल कहने वाले शायद खुद ही पागल हैं

तेरी बातें कोई न समझा.. कोई समझ ना पाएगा।

परम्परा भी परिवर्तन भी – जिया हैदरी

जिय़ा हैदरी 70 साल के हैं, लेकिन उन्हें शायरी करते हुए ही 50 साल हो गए। यानी जब वे 20 साल के थे तब से शायर बन गए हैं। जिय़ा हैदरी स्टेट बैंक से बतौर डिप्टी मैनेजर सेवानिवृत हुए हैं, लेकिन जब वे बैंक की सेवा में थे तब भी धार्मिक आयोजनों के साथ-साथ महफिल और मुशायरों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे और अब भी उनकी दिनचर्या यही है। उनका मानना है कि शायरी रुह का मसला है। एक शायर सुख-दुख, हंसी-खुशी, राग-विराग सब तरह से दुनिया को देखता है। उसकी दुनिया बहुत बड़ी होती है जिसमें लोगों से ज्य़ादा उनकी फि तरत शामिल होती है। वे फरमाते हैं-

तअ़ल्लुक़ात सही बेतलब नहीं मिलता
किसी से कोई कभी बेसबब नहीं मिलता

जब उसको मेरी जरूरत थी रोज़ मिलता था
मुझे अब उसकी ज़रूरत है अब नहीं मिलता।

तेवर अब भी बरकरार – हसन जफ़ऱ

शायर हसन जफऱ़ की पैदाइश भी मोमिनपारा में हुई हैं। जफऱ़ के परिजन टिन की पेटी बनाया करते थे। धीरे-धीरे जफऱ़ भी इस काम में लग गए लेकिन बस्ती में शेरों- शायरी माहौल ने उन्हें भी शायर बना दिया। इसी साल 2017 में जब राज्य सरकार ने उन्हें दो लाख रुपए के हाजी हसन अली सम्मान से सम्मानित किया तो वे बेहद खुश हुए, लेकिन वे प्रदेश के उर्दू अकादमी से इस बात की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि एक दिन अकादमी उनकी चुनिंदा शेरों को एकत्रित करके कोई किताब जरूर निकालेगी। जफऱ़ साहब फिलहाल 75 साल के हैं और वे खुद को बूढ़ा मानने से इंकार करते हैं। अपनी शायरी में समाज और व्यवस्था को लेकर जो कटाक्ष वे 80 के दशक में किया करते थे उनका वही तेवर अब भी बरकरार है। मोमिनपारा के शायरों में वे एक मात्र हास्य-व्यंग्य के शायर हैं। इधर-उधर के शेरों को चोरी करके खुद को शायर समझने वाले लोगों के लिए जफऱ़ फरमाते हैं-

जिगर का, दाग का मतला दबा कर बैठा हूं
अनीस और मीर का मिसरा चुरा कर बैठा हूं

जफऱ़ जमाने में मेरा कोई जवाब नहीं है
मैं अच्छे-अच्छों को चूना लगा के बैठा हूं।

एक बानगी और देखिए-

थे मंत्री के पास करोड़ों रुपए मगर

वोटों की भीख लेने गरीबों के घर गया

गंगा-जमुनी तहजीब – अशफाक अली रहबर

48 साल के अशफाक अली रहबर टिन की पेटी बनाते हैं और घर का गुज़ारा चलाने के लिए बच्चों को टयूशन भी पढ़ाते हैं। बेहद तंगी में गुजर-बसर करने के बावजूद अशफाक अपनी जिंदगी से खुश हैं। इस खुश होने की एक सबसे बड़ी वजह उनकी गंगा- जमुनी तहजीब को महत्व देने वाली शायरी है। अशफाक कहते हैं- शायर दोस्त नहीं होते तो मैं शायरी के करीब नहीं जाता और शायरी मेरे साथ नहीं होती तो शायद मैं दुनिया के साथ नहीं होता। अशफाक मानते हैं कि हिंदी और उर्दू दोनों सगी बहनें हैं जिन्हें सियासत चाहकर भी जुदा नहीं कर पाएगी। उनकी एक रचना काबिले-ए- गौर है-

दूर अपने जेहनों से नेफाक को रखिए

इंकलाब आएगा इत्तेफाक तो रखिए

एक और बानगी देखिए

रहबर ये सोचता रहा दरिया के सामने
पानी ने किस तरह मेरी तस्वीर खैंच ली

खून में शायरी – इरतिका हैदरी

नई पीढ़ी के शायरों में इरतिका हैदरी की एक खास पहचान है। वे मरहूम रज़ा हैदरी के छोटे बेटे हैं। एक निजी टेलिफोन कंपनी में कार्यरत इरतिका जब 16 साल के थे तब से राष्ट्रीय स्तर के मुशायरों में शिरकत करने लगे थे। इरतिका कहते हैं- उनके पिता ने ज़मीन -जायदाद नहीं छोड़ी, लेकिन विरासत में हमें कम शब्दों में वजनदार बात कहने का हुनर दे गए हैं। इरतिका मानते हैं कि उनका देश जितना दीगर लोगों के दिलों में धड़कता है उतना ही उनके दिल में धड़कता है। वे फरमाते हैं-

दिल में खौफे खुदा अगर रखिए
फिर ज़माने से कैसा डर रखिए

पार सरहद के ही नहीं दुश्मन
आस्तीनों पे भी नजऱ रखिए

शायरी से पैगाम – मोहम्मद मुसय्यब

मोमिनपारा के मोहम्मद मुसय्यब की एक छोटी सी जूते की दुकान है और वे खाली वक्त में टिन की पेटी भी बनाते हैं। 27 साल के मुसय्यब को शायरी की प्रेरणा उनके नाना यावर हुसैन यावर से मिली थी। मुसय्यब बताते है कि एक दिन वे यूं ही बैठे हुए थे तभी उन्हें अपने नाना की लिखी हुई एक बात पढऩे को मिली। उनके नाना ने लिखा था- उस फिक्रेसुखऩ का कायल नहीं ‘यावर’ जो शेर तो होता है पैग़ाम नहीं होता। मुसय्यब बताते हैं कि बस… नाना के इस लिखे हुए ने उन्हें पैगाम देने के लिए मजबूर कर दिया। मुसय्यब फरमाते हैं-

क्या आता है मेहमान कोई ऐसे मकां में
कांटों में किसी घर को सजाकर कोई देखे

क्यों लाख बुलाने पर भी आते नहीं वो घर
किरदार जरा अपना उठाकर कोई देखे

हरफनमौला शायर – आबिद हुसैन आबिद

आबिद हुसैन आबिद को हरफनमौला शायर माना जाता है। मोमिनपारा के शायर मानते हैं कि उनके शेर कहने का अंदाज थोड़ा जुदा इसलिए भी रहता है क्योंकि वे लंबे समय तक सरकारी सेवा में थे। अपने आसपास की बेतरतीबी को उकेरने वाले आबिद कहते हैं- सामान्य तौर पर जो लोग सरकारी सेवा से मुक्त होते हैं उन्हें लगता है कि अब क्या करेंगे,लेकिन उन्हें इस बात की चिंता कभी नहीं हुई कि उनका दिन कैसे कटेगा? आबिद का मानना है कि जब तक बेचैनियां है तब तक शायरी जिंदा है। उनकी एक गज़ल है-

क्यों झुलसने लगे इस धूंप में गांव वाले
कल यहां पर तो कई पेड़ थे छांव वाले

प्यासी धरती की दरारों से पता चलता है
कितने बादल नहीं बरसे हैं घटाओं वाले

दिवंगत शायर
बस्ती के कुछ प्रमुख शायर अब इस दुनिया में नहीं है। उनके नाम है- यावर हुसैन यावर, सादिक अली कमर, साबिर हुसैन साबिर, तवंगर हुसैन तवंगर, वहीदुलहसन हुसैन ताबिश, रज़ा हैदरी, सखावत हुसैन,ज़हीर हसन ज़हीर, अली बख्श खुर्शीद, वाहिद हुसैन वाहिद, रियाजुल हसन रियाज़, अज़हर हुसैन अज़हर।

हाजी हसन अली सम्मान से सम्मानित
काविश हैदरी, साबिर हुसैन साबिर, असगर अमजद, सुखनवर हुसैन सुखनवर और हसन जफऱ़।

मशहूर शायर

जिय़ा हैदरी, आबिद हुसैन, आलिम नकवी, जुल्फकार हैदरी जौहर, नीसम हैदरी, अशफाक अली रहबर, शमीम हैदरी, मोहम्मद यूशा, अकबर हैदरी, शम्मीमुल हसन बका, असगर अमजद, हैदर अली, मोहसिन रजा मोहसिन,मुसीरूल हसन मुशीर, मुनीरूल हसन मुनीर, तैय्यब अली अलमदार वफा

नई पीढ़ी के शायर
इरतिका हैदरी, तफज्जुल हसन, कमर अब्बास, अफज़़ाल अली, हसन असगर, आज़म अली, जिवेकार हैदरी मोजिज़, मोहम्मद मुसय्यब का नाम प्रमुख है।

संग्रह

यहां के शायरों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिसमें सिलके गुहर , जज्बातें मुव², जलवए मुव², कैफे मोतबर, साबिरे करबला, जज्बातें रज़ा , ताबिशे मातम, सतरे गुबार, रहीम-कबीर के दोहों का अनुवाद, त्रिवेणी, त्रिवेणी, मजलूम का मातम प्रमुख हैं।
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