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निर्बन्ध : मन

Published: Nov 26, 2015 01:59:00 am

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afjal

इस समय तो जिसको देखो, वही अपना भाव बढ़ा रहा है। तुम चिंता मत करो मित्र! कर्ण बोला, तुम उनको सेनापति बना दो। मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगेगा। मैं मानता हूं कि वे वृद्ध हैं। उनके पास समय कम है।

mahabharat

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इस समय तो जिसको देखो, वही अपना भाव बढ़ा रहा है। तुम चिंता मत करो मित्र! कर्ण बोला, तुम उनको सेनापति बना दो। मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगेगा। मैं मानता हूं कि वे वृद्ध हैं। उनके पास समय कम है। 

आज हैं, कल नहीं भी हो सकते। उनको मुझसे पहले सेनापति बनना चाहिए। मेरे लिए अपना सेनापति बनना महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए महत्वपूर्ण है तुम्हारी विजय।

तुम मेरे वास्तविक मित्र हो, इसलिए मेरे मन की बात समझते हो। दुर्योधन के स्वर में असाधारण माधुर्य था। द्रोण के सेनापति होने के और भी लाभ हैं। अर्जुन किसी भी स्थिति में अपने गुरु का वध नहीं करेगा। द्रोण सम्मुख होंगे तो अर्जुन का परम शौर्य प्रकट नहीं होगा। 

हमारे लिए बहुत आवश्यक है कि अर्जुन का शौर्य किसी न किसी प्रकार दबा रहे। दुर्योधन ने कर्ण के कंधे पर हाथ रख अत्यंत आत्मीयता से कहा, मेरे मन में दो एक लक्ष्य हैं, जो आचार्य के माध्यम से पूरे हो सकते हैं। एक बार वे पूरे हो लें तो मैं द्रोण और कृपाचार्य को उठाकर बाहर फेंक दूंगा। यदि अश्वत्थामा भी उनके साथ जाना चाहे तो जाए। 

मैं भूला नहीं हूं कि विराटनगर के युद्ध में अपने पिता के सम्मान की रक्षा के नाम पर वह किस प्रकार मुझसे लड़ पड़ा था। कितने अपमानजनक ढंग से।

नहीं! नहीं! इसकी क्या आवश्यकता है। कर्ण बोला, मैं जानता हूं, तुम्हारे मन में मेरे लिए कितना प्रेम है। वैसे तो मैं स्वयं अकेला ही पांचों पांडवों और धृष्टद्युम्न के लिए पर्याप्त हूं, किंतु इतने बड़े युद्ध में अनेक प्रकार के योद्धाओं की आवश्यकता होती है।

और फिर पिछले तेरह वर्षों से आपने इतने राजाओं के साथ जो मैत्री की है। उसका निर्वाह किया है। वह इसलिए तो नहीं कि युद्ध के अवसर पर मेरे मोह में आप योद्धाओं को अपने से दूर कर दें। हमें उन सबकी आवश्यकता है।

इसीलिए तो वक्ष पर पत्थर रख कर सब कुछ सहन कर रहा हूं, अन्यथा रंगभूमि में तुम्हारा अपमान करने वाले कृपाचार्य को मैं अपने निकट भी फटकने देता? दुर्योधन ने कर्ण की ओर देखा, तुम्हें स्मरण है, जब तुमने अर्जुन को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा था तो इसी कृप ने तुमसे पूछा था कि तुम कौन हो। तुम्हारी जाति क्या है? तुम्हारा परिचय क्या है? मेरे मन से तो वह उसी दिन उतर गया था। यह तो युद्ध की ही बाध्यता है कि मैं ऐसे लोगों को भी अपने हृदय से लगाए हुए हूं, अन्यथा…।

कोई बात नहीं राजन्! कर्ण ने उसकी बात बीच में ही काट दी, पहले हम पांडवों से निबट लें, फिर इन लोगों का भी प्रबंध कर लिया जाएगा। ‘एक कठिनाई यह भी तो है कि द्रोण स्वयं को मेरा गुरु ही मानते रहेंगे, सेनापति नहीं।Ó ‘तो मानते रहें।Ó 

कर्ण बोला, ‘भीष्म भी तो सदा स्वयं को तुम्हारे पितामह ही मानते रहे। यदि इससे उन लोगों को कोई प्रसन्नता मिलती है तो उन्हें प्रसन्न हो लेने दो।Ó कर्ण चला आया। अपने मंडप के एकांत में आकर वह लेट गया। उसे लगा कि उसके वक्ष के भीतर उनचासों पवन चल रहे हैं और उसके ऊपर असंख्य बवंडर मचल रहे हैं। 

दुर्योधन उससे कितना प्रेम करता है। उसको उसके सम्मान की कितनी चिंता है किन्तु जिस दिन उसे ज्ञात होगा कि वह कुंती का पुत्र है और उसने अपनी मां को यह वचन दे रखा है कि वह चार पांडवों का वध नहीं करेगा।

क्रमश: – नरेन्द्र कोहली
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