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समय के साथ बदला है सास बहु का रिश्ता

Published: Mar 05, 2015 04:17:00 pm

सास को अब बहू उसे “आराम देने वाली” नहीं, बल्कि उसका हाथ बंटाने वाली लगने लगी
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Mother daughter

Mother daughter

किसी सोशल नेटवर्किग वेबसाइट पर हाल ही में पढ़ा था की 1813 में महिलाओं के पास कोइ अधिकार नहीं थे। 1913 में महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ीं और 2013 में महिलाएं ही सही हैं। यदी इसे अंग्रेजी में पढ़ें तो यह वाक्य ज्यादा सही प्रतीत होता है। यह तो बात हुई महिलाओं के अधिकार के बारे में जो आजकल हर दूसरा टीवी चेनल या एनजीओ कर रहे हैं लेकिन यदि बात करें महिलाओं के आपसी रिश्तों के बारे में तो बदलते समय के दौरान बड़ी ही तेजी से महिलाओं में बी परिवर्तन आया है। और यह परिवर्तन सकारात्मक है।

वर्षो पहले 1980 में एक फिल्म आई थी सौ दिन सास के। यह फिल्म उन दिनों काफी सफल रही थी। इसमें सास की भूमिका हिन्दी फिल्मों में अत्याचारी सास के रोल निभाने वाली ललिता पंवार ने निभाई थी। इसमें बड़ी बहू शीला की भूमिका आशा पारेख और छोटी बहू दुर्गा की भूमिका रीना राय ने निभाई थी। इसमें अपने नाम के अनुसार ही बड़ी बहू शीला हर अत्याचार और मारपीट को बर्दाश्त कर लेती है। दुर्गा देवी जब घर में आती है और बड़ी बहू को मारने की आदी सास जब उसे मारने के लिए हाथ उठाती है तो वह उसका हाथ पकड़ लेती है। इस दृश्य के आते ही थिएटर में खूब तालियां बजती थीं।
1980 से भारत में औरतों के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ रही थी। यह माना जाने लगा था कि संयुक्त परिवार का मतलब यह नहीं कि जो लड़की बहू बनकर आए, वह सास तथा अन्य ससुराल वालों की मारपीट और ताने सहती रहे। इसीलिए जब रीना राय ने ललिता पंवार का हाथ पकड़ा था तो खूब तालियां बजी थीं। भारतीय समाज में न जाने यह कैसे हो गया कि सास का नाम सुनते ही बहुओं की रूह कांपने लगती थी। ससुराल में अगर सास खुश रहे तो समझो बहू की जिंदगी चैन से गुजर जाएगी, वरना तो बस मुसीबत ही मुसीबत।

लेकिन भारत में चीजें तेजी से बदल रही थीं। लड़कियां पढ़-लिख रही थीं। उनमें अपने पांवों पर खड़ी होने की इच्छा जाग रही थी। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ शादी करके घर बसाना है, इसे वे नकार रही थीं।

पढ़ी-लिखी होने का फर्क
इसके अलावा इस दौर की सासें खुद भी पढ़ी-लिखी हैं। बहुत-सी नौकरी भी करती रही हैं। वे जानती हैं कि बहू जब थकी-हारी दफ्तर से आएगी तो शायद उसे एक कप चाय, कुछ प्यार भरे शब्दों और कुछ आराम की जरूरत होगी। इसलिए आसपास के घरों में अक्सर दिखाई देता है कि बहू के लौटने से पहले ही सासें सारा काम निपटाकर रखती हैं, जिससे कि कुछ देर बहू से बातें कर सकें।

गायब हो रहा है पर्दा
भारत में बहू के लिए पर्दा एक भारी आफत की तरह रहा है, लेकिन इन दिनों देखिए तो पर्दा एकदम गायब हो गया है। आज ऎसी बहुएं बड़ी संख्या में दिखेंगी, जिन्हें पहचानना मुश्किल है कि वे घर की बहू हैं या बेटी। वे अपनी इस आजादी का भरपूर उपयोग परिवार की खुशहाली के लिए भी करती हैं। सास के बैंक से लेकर बाजार के काम निपटाना, कहीं ले जाना हो तो ड्राइव करके ले जाना, हारी-बीमारी में देखभाल करना आदि।

बदलावों को पहचानिए
ऊपर तो कुछ घटनाएं लिखी गई हैं, मगर ऎसी घटनाएं हमारे समाज में हर रोज घट रही हैं। ये बड़े बदलाव का संकेत हैं। अक्सर महिला अधिकार संगठन कहते रहते हैं कि यहां कुछ नहीं बदल रहा। महिलाओं की स्थिति जस की तस है, परिवार में उनको बहुत ज्यादा मान-सम्मान नहीं मिलता, लेकिन यकीन मानिए बहुत कुछ बदल रहा है। बड़े शहर हों, छोटे कस्बे हों या गांव, वहां बहुत-सी बातें ऎसी हो रही हैं जिनकी कल्पना करना कुछ वर्ष पहले तक कठिन था। जरूरत है कि बदलाव की इन आवाजों को हम सुनें। हमेशा यह कहते रहना कि कहीं कुछ नहीं हो रहा, वास्तविकता से मुंह मोड़ना है।
और इस बदलाव का सबसे बड़ा हिस्सा हैं, हमारे आपके घर-परिवार। यकीन न तो अपने आस-पास जरा नजर उठा कर देख लीजिए। आज अगर बहुएं बदल गई हैं तो सासें भी कुछ कम नहीं बदली हैं।

आर्थिक आजादी ने बदली तस्वीर
सास बहू के पहनने-ओढ़ने, चलने फिरने, खाने-पीने, व्रत रखने-न रखने, बैठने, यहां तक कि मायके आने-जाने पर भी रोक-टोक करती थी। घर से लाई ही क्या है, यह तो पल-पल सुनना पड़ता था। उस पर भी तुर्रा यह कि ऎसी सास की सेवा करना, उसके पांव दबाना उसका परम धर्म था। मशहूर लेखिका ममता कालिया की कहानी है, राए वाली। जिसमें एक बहू की मां की मौत हो जाती है, मगर उस दुख को भूलकर उसे परिवार की शादी में नाचना पड़ता है। इस तरह की क्रूर सासों की अनंतकथाएं पुराने जमाने की बहुओं से सुनी जा सकती हैं। लेकिन जब से लड़कियां खुद कमाने लगीं, हर बात पर पसंद-नापसंद बताने लगीं, अपने अधिकारों को समझने लगीं, तब से सासों की भूमिका भी वह नहीं रही। आज शहरों में ललिता पंवार जैसी सासें कम मिलती हैं। अगर मिलती भी हैं तो पहले तो उन्हें अपने बेटे का ही विरोध सहना पड़ता है। ऊपर से आसपास वाले भी इसे अच्छा नहीं मानते। बहू के साथ कोई भी बुरा व्यवहार हो यह कोई भी सहन नहीं करता।

“भारत की महिलाएं तेजी से बदली हैं और बदली है उनकी मानसिकता भी। नई पीढ़ी की बहुओं के साथ पुरानी पीढ़ी की सास अब “एडजस्टमेंट” बिठाने की कोशिश में लगती दिखाई देती है। सास को अब बहू उसे “आराम देने वाली” नहीं, बल्कि उसका हाथ बंटाने वाली लगने लगी है।”
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