सामाजिक विकसीत मुख्य धारा से जुडने के लिए यह अनिवार्य हे कि धर्म कि वास्तविक विवेचना सही अर्थो में कि जाए
धर्म का वास्तविक अर्थ , हम सामान्यतः धार्मिक कट्टरता के रूप में स्वीकार करते हैं ,जो सर्वथा गलत हैं।यह हमारी संकुचित एवं संकिर्ण मानसिकता कि उपज हे जिसके परिणाम स्वरूप धर्म को आधार बनाकर हम सामाजिक वर्गभेद, अराजकता, सामाजिक, धार्मिक वर्गसंगर्ष ,आतंकवाद को फैलाते हैं। हम झुठे अंधविश्वास के भरोसे, अंधी धार्मिकगुरू भक्ति के कारण, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहकर सामाजिक एवं मानसिक पतोन्मुख दलदल में फंसते चले जा रहे है जो अनुचित हैं। वास्तव में हम धर्म को सर्व जन हिताय, सर्व धर्म समभाव एवं विश्वबंध्ुात्व की भावना से जोडकर जीवन की कर्त्तव्य शैली के रूप में निरूपित कर सकते हैं।
सामाजिक विकसीत मुख्य धारा से जुडने के लिए यह अनिवार्य हे कि धर्म कि वास्तविक विवेचना सही अर्थो में कि जाए। कुछ बिन्दुओं को आधार बनाकर एवं इनका संक्षिप्त विवेचन करके धर्म शब्द का सही अर्थ अपनी जीवन शैली के आधार पर कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति में वस्तुतः धर्म को एक आदर्श आचार-संहिता के रूप में स्वीकारा हैं। इसमें व्यक्तिगत उत्कर्ष व सामाजिक हित दोनों का समन्वय रखा जाता हैं।
संसार के सभी धर्मो की सुदृढता का एक ही कारण हैं। उनकी एक निश्चित अनुशासित, सुगठित प्रक्रिया।मुसलमानों की कुरान एक, पैगम्बर एक, कलमा एक, प्रथा प्रचलन एक, ईसाईयों की बाइबिल एक, अवतार एक, बपतिस्मा एक, परम्परा एवं मान्यताएँ एक। यहीं बात कहीं न कहीं रूप से हिन्दु, यहूदी, पारसी इत्यादि धर्मो की भी है, जो इन्हे एकता के सूत्र में बांधती हैं। इस प्रकार धर्म मात्र कहने सुनने का विषय नही है, यह तो सर्वहित की आदर्श आचरण पद्धति हैं, जिस पर चलकर मनुष्य व समाज प्रगति पथ पर सतत् बढ सकता हैं।
अतः धर्म के आधार पर सामाजिक विभेदिकरण व आंतक फैलाना अनुचित हैं। चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धर्म को सर्वोपरी स्थान दिया गया हैं। स्पष्ट है धर्म ही पुरूषार्थ हैं। चरित्र निर्माण में सहायक धर्म, अकुलीन को कुलीन, भीरू को वीर, अपावन को पावन रूप में निरूपित कर उचित-अनुचित कर्त्तव्य का बोध कराता हैं। धर्म की शाब्दिक उŸपति अनुसार अर्थ है धारण किये जाने वाला, आचरण करने योग्य अर्थात् मनुष्य मात्र जिसे अपने आचरण में लाए वहीं ही धर्म कहलाता हैं। इस प्रकार हम धर्म शब्द का अर्थ दो रूपांे में अभिव्यक्त कर सकते हैं। प्रथम यह की धर्म मनुष्य को धारण करने, आचरण करने, व्यवहार में लाने का तत्व है, यह धर्म का मानवाचार का रूप हैं।
धर्म का दूसरा रूप सामाजिक है, जो सामाजिक स्थिति का आधार बनता हैं। धर्म का लक्षण प्रेरणा है अर्थात् अपनी अवस्था उच्चतर करने के लिए आन्तरिक स्फूर्ति जो मन में उत्पन्न हो जाती है परिणामस्वरुप मनुष्य उन्नति की प्राप्ति हेतु कर्म के लिए प्रवृत्त होता हैं यह पुरूषार्थ करने की प्रबल प्रवृति जनक प्रेरणा ही धार्मिक प्रवृति का लक्षण हैं। धर्म का सम्बन्ध कर्त्तव्य बोध से संकेतित किया जाता हैं।
अर्थात् धारण करने से इसका नाम धर्म है। धर्म ही मनुष्य को धारण करता है किसी को कोई कार्य करना धर्म संगत है,उस स्थान में धर्म शब्द से कर्त्तव्य शास्त्र का अर्थ पाया जाता हैं। अर्थात् धर्म का सार सुनो, सुनो और धारण करों। अपने को अच्छा न लगे वह दूसरो के साथ व्यवहार न करों। कार्यसिद्धि हेतु धर्म को प्रेरणा के प्रतिपादक के रूप में व्यक्त किया हैं। इस तरह श्रेय पथ पर चल कर ,श्रेष्ठ चिन्तन का आचरण निर्धारित करने वाला धर्म एक मात्र ऐसा आधार शास्त्र है जिसके द्वारा वैयक्तिक व सामाजिक उत्कृष्टता का उचित मापदंड प्रकट हो कर नियमपूर्ण अनुशासित, संयमपूर्ण जीवन का संतुलन बना रहता हैं। क्योंकी धर्म प्रेरणास्प्रद कर्त्तव्य की भावना से हमारे सम्पूर्ण जीवन का, हमारे समस्त क्रियाकलापों का आध्यात्मिक नियन्त्रण रखता हैं।
डॉ.नीतू सोनी